कुछ कहूं
कुछ सुनूं
कह सकूं
सुन सकूं
दोस्त थे तुम मेरे
मैं कभी बन सकूं
हो ये सब कुछ मगर
हाथ में हाथ हो
कोई शाम साथ हो
यार तुम मिलो तो सही !!!
क्या कहा
क्या किया
रात दिन
सुबह शाम
चाँद से
ख्वाब में
कौन सी बात की ?
कब उठा
कब नहीं
जीता क्या
हारा कर
यार ये सब हुआ
और मैं ढूँढता हूँ कहीं हो जो तुम
हो गुजर रही यूँही
जिंदगी तुम्हारी भी
पर मगर
क्या करूँ सामने जो तुम नहीं
क्या कहूं
क्या करूँ
जीत में हार में
सांस की हर पुकार में
हो मगर दूर हो
यार तुम मिलो तो सही
कुछ सुनूं
कह सकूं
सुन सकूं
दोस्त थे तुम मेरे
मैं कभी बन सकूं
हो ये सब कुछ मगर
हाथ में हाथ हो
कोई शाम साथ हो
यार तुम मिलो तो सही !!!
क्या कहा
क्या किया
रात दिन
सुबह शाम
चाँद से
ख्वाब में
कौन सी बात की ?
कब उठा
कब नहीं
जीता क्या
हारा कर
यार ये सब हुआ
और मैं ढूँढता हूँ कहीं हो जो तुम
हो गुजर रही यूँही
जिंदगी तुम्हारी भी
पर मगर
क्या करूँ सामने जो तुम नहीं
क्या कहूं
क्या करूँ
जीत में हार में
सांस की हर पुकार में
हो मगर दूर हो
यार तुम मिलो तो सही
8 comments:
इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।
मिलो यार अब तो सही, विरह सही न जाय ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
thank you sir
कुछ कहने ,सुनने के लिए मिलना
तो जरुरी है |||
बहुत ही सुन्दर रचना...:-)
बहुत खूब.....
bahut shukriya ..badi meharbaani...hoozoor aap aaye
I thank everyone a lot for coming and encouraging me.
Thanks
badhiya rachna,bdhai aap ko
जिंदगी तुम्हारी भी
पर मगर
क्या करूँ सामने जो तुम नहीं
क्या कहूं
क्या करूँ
जीत में हार में
सांस की हर पुकार में
हो मगर दूर हो
यार तुम मिलो तो सही
कविता तो कविता दिनेश भाई की टिपण्णी भी लाज़वाब .
Post a Comment