Friday, April 9, 2010

तारीफ़ करता था शेरों की जो अपने नहीं थें

तारीफ़ करता था शेरों की जो अपने नहीं थें
लिखता था जुमले जो कभी छपने नहीं थें

करता था बागबानी अरमानों के बागों में
लगये वो फूल जो खिजाओं में पनपने नहीं थें

जुदा हुआ मुझसे ज़ालिम साया भी मेरा
मेरे पते के ख़त भी अब मेरे अपने नहीं थें

इन आखों में चुभते हैं हर पल ये तुकडे
टूटे जो पलकों पे, फकत सपने नहीं थें

खूब रोया लिपट कर जिनसे मैं पहरों
होश आया तो जाना वो अपने नहीं थें

1 comment:

Anonymous said...

bahut hi sundar...
kya kahoon mann mohit ho gaya....
i'll wait for your next ones....
regards..
shekhar..

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