Sunday, April 18, 2010

उलझनें जीवन की

सुलझाने जो बैठा उलझनें जीवन की
उलझता चला गया
जाने कब गांठें पड़ी जीवन की डोर में
जाने कब दोनों सिरे हाथ से छूट गए


चक्रेश

2 comments:

Pushpendra Singh "Pushp" said...

bahut sundar bhav badhai

अरुण मिश्र said...

सच कहा आपने और
ख़ूब कहा

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

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