मैं पूछता रहा उससे के दरिया-ऐ-हयात गहरा तो नहीं
जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?
गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है
मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं
लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है
किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं
जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में
हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं
झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों
आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं
बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में
चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
मेरे सच्चे शेर
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा ख़ुद के हा...
3 comments:
सुन्दर अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर!
Bahut dhanyaavad
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