Wednesday, November 17, 2010

मैं पूछता रहा उससे के

मैं पूछता रहा उससे के दरिया-ऐ-हयात गहरा तो नहीं

जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?


गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है

मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं


लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है

किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं


जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में

हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं



झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों

आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं



बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में

चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं

3 comments:

ZEAL said...

सुन्दर अभिव्यक्ति।

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर!

chakresh singh said...

Bahut dhanyaavad

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