Tuesday, November 29, 2011

Sketch - 001


A loner, a mystic or a blissful saint, I can't say for sure, but that's what my heart looks like.








-Medium: Charcoal-

Sunday, November 27, 2011

चुभती हैं मुझे शहर-ऐ-समझदार की बातें

चुभती हैं मुझे शहर-ऐ-समझदार की बातें
दिल ऊब चुका सुन कर बेकार की बातें

कहते हैं के काफी थी मेरे हिस्से की हँसी
अब वक़्त है के समझूं  is संसार बातें 

मुझसे जुदा खड़े हैं मुझे सब जानने वाले 
इनको न रास आयीं मेरी प्यार की बातें  

मेरे ख्वाब में परी थी, बाहों में फैले बादल
कितनी अजीब हैं पर, ये कारोबार की बातें

टुकड़ों में जी रहा हूँ, क्यूँ ज़िन्दगी तुझे
कब हो गयीं ज़रूरी, कुछ दो-चार की बातें

Friday, November 25, 2011

नाम ३

तखल्लुस ढूँढने निकला था

फिर शाम, साहिल की गीली रेतों पर

और फिर वही बेनामी लेकर

लौट आया घर को मैं...

नाम २

सोच रहा था के होने वाले बेटे का नाम 'जुनैद सिंह' रखूंगा...

फिर याद आया के मैं तो हिन्दू हूँ ...

नाम १

जाने क्या शिकायत है लहरों को

जाने क्या बेचैनी है

नाम है मेरा मैं थोड़ी हूँ

फिर भी इतनी नाराजी!!!

सौ बार लिखा गीली रेतों पर

सौ बार मिटा कर चली गयीं

शायद इनको साहिलों पर

शोर शराबा पसंद नहीं

मुझको ये सागर कुछ ऐसा,

अनजान दिखाई पड़ता है

जैसे के हो कर भी न हो

होने न होने में

कुछ होने न होने का चक्कर..

मैं न जानूं क्या है पर

अदाज जुदा सा है इसका

सोचता हूँ शायर ही कह दूं

कुछ नाम तो देना होगा आखिर

वर्ना होना न होना सा होगा

कम से कम मेरी दुनिया में..

इसकी शिद्दत में ये लहरें

अपने होने को भूल चुकीं

और बेतुकी बातों से आगे

चलकर जीती जाती हैं

क्यूँ न फिर नाम ये मेरा

बेमतलब बेजान लगे

क्यूँ न मेरे होने को ये

दरकिनार कर के बढ़ आयें ...

और इस सब के होते होते

दूर थका सूरज ठंडा पढ़ सा जाता है

शाम गुलाबी साड़ी में लिपटी

मफलूस आईने के आगे बैठी

नयी दुल्हन सी दिखती है

बादल, हवा, रंगों को लेकर

सजती पल भर के मिलने को मुझसे

पति समंदर की खामोशी पर शर्मिंदा

कुछ मेहमान नवाजी करने को

कुछ परिंदे शाख ढूँढते

फिरते देखा करता हूँ

हर शाम अंधेरों से निकल कर

मैं दिन को देखा करता हूँ

अपने होने न होने पर

लहरों से बातें करता हूँ

और शाम को अपने आगे बिठाकर

लिखता हूँ

सुनाता हूँ

हँसता हूँ

हंसाता हूँ

बस ऐसे ही जीता आया हूँ

बस ऐसे ही जीता जाता हूँ

Tuesday, November 22, 2011

साहिल मेरी जुबाँ

साहिल मेरी जुबाँ, दरिया है मेरा दिल

दाइम सुबहो-से-शाम, बहता है मेरा दिल




हर्फ़-ऐ-गुहर अक्सर आते हैं लबों तक
यादों की सीपियाँ, रखता है मेरा दिल


मुझसे न पूछिए, सफीनों का डूबना

नाखुदा न जान पाए के क्या है मेरा दिल

Monday, November 14, 2011

उसे आना होगा

रोज जिसे देखकर जीते आये

वो आज नहीं आया तो दम घुट सा गया

वक्त की चाल बेतुकी सी लगी

हर आह में धुवाँ सुलगने सा लगा

हर सू मेरी आँखें प्यासी ही रहीं

कोई आवाज़ दिल-ओ-जाँ तक उतर न सकी

और नब्ज़ डूबने सी लगी

वो आता होगा..

उसे आना होगा...

वो मेरी जिंदगी का मालिक है

मेरे दिल तक उतरता दरिया-ऐ-हयात

मेरे होने का मतलब उससे

मेरी साँसों का वो ही रखवाला

जुबाँ झूठ का सहारा लेकर

मुझे मुझमें कभी समाँ देगी

मगर मैं आज भी समझता हूँ

उस पर्दा-नशीं से आगे

मेरा कोई वजूद नहीं

असल बात तो बस इतनी सी

के उसकी दो निगाहों में

जल रहे नर्म चरागों का

मैं एक तड़पता दीवाना






फ़क़त उस लौ से मेरा मतलब है

फ़क़त इक बार ही मैं जीने आया

उन नर्म सुर्ख होठों पर

धुवाँ- धुवाँ होने के लिए

अपना वजूद खोने के लिए

वो आजा नहीं आया और... दम, घुट सा गया

उसे आना होगा

मेरी साँसों की रवानी के लिए

मेरी ग़ज़लों की जवानी के लिए

उसे आना होगा

इस तपते रेत के समंदर में

दरिया बनकर

उसे आना होगा

मेरी हर आह की खातिर

मेरे जिस्म में चुभते तन्हाई के काँटों की कसक

भी भुलंद हो के कह रही है यही

उसे आना होगा

उसे आना होगा

Wednesday, November 9, 2011

वर्त्तमान के आईने में

वर्त्तमान के आईने में भूत, भविष्य ही देखता है
संवरता है
सजता है
किसी अनजान से मिलने की उत्सुकता लिए
प्रतीक्षा करता है
और समय आने पर
नए नए रूपों में
नए नए चेहरों से मिलता है
पर हर यात्रा के थके राहगीर ही की तरेह
हर नया राही भी अपने हिस्से के वर्त्तमान को झटक कर दूर करने की भूल कर बैठता है
किसी अनजान की चाह में  चलते चले जाता है 
वर्तमान के आईने में
अक्सर चीजें उलटी-पुलटी सी दिखने लगती हैं
थके चहरे अक्सर अपनी सूरत से नफरत कर बैठते हैं
ये भूल ही है शायद
हास्यास्पद भी
और इसीलिए शायद एक विडम्बना भी
झूठ सच के दोगले चेहरे वाली समझ
कई बार एक दोराहे पर लाकर खड़ा कर जाती है मुझको
और सारा दिन हंसने के बाद
रात बैठ कर रोता हूँ
कब जगता हूँ
कब सोता हूँ
गीता के श्लोकों में उलझा,
उलझा हुआ सा होता हूँ
वर्त्तमान के आईने में
एक बिम्भ सा ... एक दूर जाकर बन रहे बिम्भ सा
कुछ देख रहा हूँ
वर्तमान के आईने में आगे देखता हुआ मैं, भूत ही देख रहा हूँ मैं शायद

Tuesday, November 1, 2011

भूल गए और ...

शाम ढली, आप आए, मुस्कराए और
हाथ मिले, दोस्त बने, गीत गाये और
धूप खिली, राह मिली, रात कटी और
पत्ते हिले, साँस आई, धुंध घटी और
खूब हँसे, नाँच उठे, भूल गए और
आसमाँ में, बादलों में, झूल गए और
प्यास नही, आस नही, चाह नही और
क्लेश नही, शोक नही, आह नही और
नन्हे कदम, नाँच उठे, धूल उठी और
भीनी भीनी, खुशबू में सब भूल गए और ...

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...