जाने क्या शिकायत है लहरों को
जाने क्या बेचैनी है
नाम है मेरा मैं थोड़ी हूँ
फिर भी इतनी नाराजी!!!
सौ बार लिखा गीली रेतों पर
सौ बार मिटा कर चली गयीं
शायद इनको साहिलों पर
शोर शराबा पसंद नहीं
मुझको ये सागर कुछ ऐसा,
अनजान दिखाई पड़ता है
जैसे के हो कर भी न हो
होने न होने में
कुछ होने न होने का चक्कर..
मैं न जानूं क्या है पर
अदाज जुदा सा है इसका
सोचता हूँ शायर ही कह दूं
कुछ नाम तो देना होगा आखिर
वर्ना होना न होना सा होगा
कम से कम मेरी दुनिया में..
इसकी शिद्दत में ये लहरें
अपने होने को भूल चुकीं
और बेतुकी बातों से आगे
चलकर जीती जाती हैं
क्यूँ न फिर नाम ये मेरा
बेमतलब बेजान लगे
क्यूँ न मेरे होने को ये
दरकिनार कर के बढ़ आयें ...
और इस सब के होते होते
दूर थका सूरज ठंडा पढ़ सा जाता है
शाम गुलाबी साड़ी में लिपटी
मफलूस आईने के आगे बैठी
नयी दुल्हन सी दिखती है
बादल, हवा, रंगों को लेकर
सजती पल भर के मिलने को मुझसे
पति समंदर की खामोशी पर शर्मिंदा
कुछ मेहमान नवाजी करने को
कुछ परिंदे शाख ढूँढते
फिरते देखा करता हूँ
हर शाम अंधेरों से निकल कर
मैं दिन को देखा करता हूँ
अपने होने न होने पर
लहरों से बातें करता हूँ
और शाम को अपने आगे बिठाकर
लिखता हूँ
सुनाता हूँ
हँसता हूँ
हंसाता हूँ
बस ऐसे ही जीता आया हूँ
बस ऐसे ही जीता जाता हूँ
1 comment:
सुन्दर रचनाओं में से एक ||
आभार ||
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