Wednesday, November 9, 2011

वर्त्तमान के आईने में

वर्त्तमान के आईने में भूत, भविष्य ही देखता है
संवरता है
सजता है
किसी अनजान से मिलने की उत्सुकता लिए
प्रतीक्षा करता है
और समय आने पर
नए नए रूपों में
नए नए चेहरों से मिलता है
पर हर यात्रा के थके राहगीर ही की तरेह
हर नया राही भी अपने हिस्से के वर्त्तमान को झटक कर दूर करने की भूल कर बैठता है
किसी अनजान की चाह में  चलते चले जाता है 
वर्तमान के आईने में
अक्सर चीजें उलटी-पुलटी सी दिखने लगती हैं
थके चहरे अक्सर अपनी सूरत से नफरत कर बैठते हैं
ये भूल ही है शायद
हास्यास्पद भी
और इसीलिए शायद एक विडम्बना भी
झूठ सच के दोगले चेहरे वाली समझ
कई बार एक दोराहे पर लाकर खड़ा कर जाती है मुझको
और सारा दिन हंसने के बाद
रात बैठ कर रोता हूँ
कब जगता हूँ
कब सोता हूँ
गीता के श्लोकों में उलझा,
उलझा हुआ सा होता हूँ
वर्त्तमान के आईने में
एक बिम्भ सा ... एक दूर जाकर बन रहे बिम्भ सा
कुछ देख रहा हूँ
वर्तमान के आईने में आगे देखता हुआ मैं, भूत ही देख रहा हूँ मैं शायद

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