चलती रेल की खिड़की से बाहर देखूं
तो आज भी मेरा बचपन
उसी दिलचस्पी के साथ
टकटकी बांधे, गाल हाथ धरे
देख रहा है दूर तक विस्तृत लहलहाते
खेत खलिहान
हर टूटा फूटा माटी का घर किसी अपने ही ताऊ,
चाचा- चाचीऔर भैया का सा लगता है
आसमान में पंख फैलाये छोटी छोटी उड़ान भरती हर चिड़िया
हिंदी भाषी लगती है
ये हिंद देश की सीमाएं हैं
वो दूर मेरे ही बागीचे
समय के साथ कब उम्र बढ़ी
कब कवितातें मुझतक आ पहुँचीं
पता ही नहीं चला
हाँ पर कुछ देर की चुप्पी में
सारा बचपन उसी खिड़की पर बैठा देखता हूँ
जाने अंतिम दिन जीवन के कितना बड़ा हो पाऊंगा मैं
4 comments:
बेजोड़ भावाभियक्ति....
बहुत शुक्रिया ....
बहुत सुन्दर .....
बहुत बहुत बढ़िया भाव अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर...
सहज और सरल....
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