Thursday, August 16, 2012

मेरी उम्र नहीं बढती


चलती रेल की खिड़की से बाहर देखूं


तो आज भी मेरा बचपन

उसी दिलचस्पी के साथ

टकटकी बांधे, गाल हाथ धरे

देख रहा है दूर तक विस्तृत लहलहाते

खेत खलिहान 

हर टूटा फूटा माटी का घर किसी अपने ही  ताऊ,

चाचा- चाचीऔर भैया का सा लगता है 

आसमान में पंख फैलाये छोटी छोटी उड़ान भरती हर चिड़िया

हिंदी भाषी लगती है

 ये हिंद देश की सीमाएं हैं

वो दूर मेरे ही बागीचे 

समय के साथ कब उम्र बढ़ी 

कब कवितातें मुझतक आ पहुँचीं 

पता ही नहीं चला

हाँ पर कुछ देर की चुप्पी में 

सारा बचपन उसी खिड़की पर बैठा देखता हूँ 

जाने अंतिम दिन जीवन के कितना बड़ा हो पाऊंगा मैं 


4 comments:

विभूति" said...

बेजोड़ भावाभियक्ति....

chakresh singh said...

बहुत शुक्रिया ....

nayee dunia said...

बहुत सुन्दर .....

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत बहुत बढ़िया भाव अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर...
सहज और सरल....

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