Sunday, February 28, 2010

देखो तो होली आई है

उठता शोर मोहल्ले में देखो तो होली आई है
रंगों में छिपा चेहरा पहचानो, अपना ही कोई भाई है

स्वेट लिबाज पर रंगों की अद्भुत ये रंगोली देखो
लाल पीले हरे नारंगी छीटों की ये होली देखो
रंगों ने मिलकर कुछ 'निरर्थक' सी आकृति बनाई है
उठता शोर मोहल्ले में देखो तो होली आई है .....................

नहीं कहता अलविदा तुमसे

नहीं कहता अलविदा तुमसे
अभी कुछ उद्देश बाकी है
कुछ कहानी आगे चल चुकी जरूर है
कुछ अधूरा कुछ शेष बाकी है

कौंध रही है रह रह कर
एक बिज़ली नसों में
पिघलती मोम के साथ जलते शरीर में
अब भी कुछ चक्रेश बाकी है

Thursday, February 25, 2010

तब कविता लिखता हूँ

भोर में जब लालिमा सूर्य की
है नब में छा जाती
थाल सजा आरती की मंदिर में
जब तुम छम से आ जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

चांदी बदन पर लिपटी साडी
जब पावन आँचल लहराता
मारे शर्म की झुकाती पलकें
चेहरे का रंग गहराता
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

देख तुझसी अद्भुत छवि को
जब देवी मूरत मुस्काती
मंदिर के चौखट को छू कर
जब तुम लांघ अन्दर जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

प्रभु मंदिर में मन ही मन
जब तुम मुझको अपनाती
फिर देख मुझे अनजान बनकर
सखियों संग हंसती बतियाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

मन मोहनी हृदय वासिनी
आज तुम्हे बतला दूँ
कहे बिना कुछ तुमको
चीर हृदय दिखला दूँ
कविता बना कबसे मैं तुमको
मन मंदिर में रखता हूँ
याद आती है जब तू मुझको
तब कविता लिखता हूँ
हाँ तब कविता लिखता हूँ ...

Monday, February 22, 2010

आखर लता


खाली कमरा
बंद दरवाजे
चुप्पी देर रात की..........

बंद खिड़की
खुला पर्दा
आँख प्यासी बरसात की.....

कोरा कागज
जलता दिया
भूखी कलम किसी बात की ....

शांत चित्त
मद्धम साँसे
कहानी यही हर रात की ........

बंद मुट्ठी (पर)
टिकी ठुड्डी
कामना मन में प्रभात की


ठंडी पवन
चींखते जीव
तस्वीर समाज के हालात की


जीवन दिष्टांत
वर्त्तमान अतीत
सीमाए मानव जात की

भावना पुष्प
आखर लता
कविता ये अज्ञात की


विधि विधान
गीता कुरान
संस्कार शिक्षाएं तात की

Friday, February 19, 2010

आप ही बताइए'


'हाँ, गलत है जो हो रहा है ऐसा नहीं होना चाहिए '
कहता है एक आदमी, कभी आप किसी पान की दूकान पर तो आइये
और संग दो चार अधेड़ और खड़े देखेंगे आप
कहते हुए की भाई साहब, तनिक पान इधर भी तो बढ़ाइए'

देख रहा था दूर से मैं भी वहीं बैठ कर
क्या बात है ये आज गए नहीं क्या अपने दफ्तर या दूर है इनका घर ?
पर तर्क औ वितर्क हर बात पर करना भी नहीं चाहिए
सुन रहा था दूर से मैं , आप भी उसकी बातों का लुफ्त उठाइये


'क्या कहें की अब राजनीत ही जब बदल गयी
महंगाई बढती ही जाती आती जाती सरकारें कई
और उसपर तबादले इमानदार अफसरों के, ऐसा नहीं होना चाहिए
अन्याय है अंधेर है ये, अजी भाई साहब आप ही बताइए'

'कोई बच्चों को पढाना चाहे भी तो आखिर क्या करे
जरा देखिये तो फीस कालेजों की, और फिर महंगाई दरें
और इसपर आप आम आदमी पर 'anti corruption' का विधेयक लेकर आईये
किराया घर का, बिजली-पानी का बिल ऐसे में क्या खाइए क्या बचाइए'

'तंग है वर्दी पुलिस की और है तख्वा बहुत कम
बीमार होकर, घर गृहस्ती तोड़ दे खुद बा खुद दम
वसूली करता है हवलदार सच पर दूसरा सच ऐसे ही न ठुकराइए
खरचा कैसे चलेगा जो आप प्रोजेक्ट पर 'कमीशन' न कमाइए'


'कभी ढूँढने निकलना पड़े जो आप को अपनी प्यारी बेटी को वर
पहले जेब भर लो बेंच के सर्वस्व अपना, छत अपनी औ अपना घर
सबको जमीन, गाडी, दहेज़, मोटी रकम बस चाहिए
भ्रूंड-हत्या भी गलत है , लाचार पिता को अब आप ही समझाइये'

'बास आती है यहाँ हर गली के नाले हैं खुले
खँडहर है किसान का, नेताओं के घर हैं किले
मुझको नहीं अब और खाना आप ही पान खाइए
पूछता हूँ खुद से मैं ये जीवन आखिर क्यूँ जीना चाहिए?'




चक्रेश सिंह

Wednesday, February 17, 2010

वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में


रात फिर शोर उठा था, कहीं पर, जाने अंजाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

जीवित पलों की आपाधापी
निद्रा में अबतक थी जिसने नापी
जीवन बीता था जिसका अब तक
बस सोने और सुस्ताने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

वो कहता है 'मैं' बिन जीवन-सार अधुरा
अंधा है जग ये सारा संसार पूरा
नहीं समझते लोग यहाँ पर
रहस्य है कुछ 'मैं ' में अंगूर के दाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

समय की पदचाप सुनता
जीवन सार आप बुनता
दिखा गया वो इक गाँठ साकी को
जीवन के ताने बाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

..........................

चक्रेश सिंह
१६/२/२०१०

Monday, February 15, 2010

कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को देख रहा हूँ


घडी की टिक टिक सुनता
कमरे में खिड़की से चिप्पकी रखी मेज पर
बैठा
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

सीने में अंगार सुलगता रहा दिन भर
और अब
अंतर से उठते धूँये में
खांसता,
आँखें मलता
सांस लेने को तड़पता
खिड़की पर आ बैठा मैं
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

सूखे पेड़ की एक डाल पर अचानक
यूँही आ बैठा एक गिद्ध
सबसे ऊंची टहनी पर
पंजों से कस के दबोंच कर दाल को ...

कुछ धुंए का असर है की
आँखें धुंधला गयी हैं
ज्यादा कुछ देख नहीं पाता मैं

फिर कुछ देर वहीँ बैठ कर
वो गिद्ध न जाने कौन सी अपनत्व की ढली
घोलता रहा मेरे मन में
अंतर की आग बुझने लगी मानो
धीरे धीरे ..

जीवन का एक सच
खिड़की के इस पार
जलाता सुलगता देख चूका मैं
जीवन का एक सच
खिड़की के उस पार
उस ठूंठे पेड़ की स्थिरता में देखा रहा हूँ
पर जीवन-गणित में
आधा-आधा एक कहाँ होता है बोलो ?
ये सच भी,
अभी पूरा कहाँ है बोलो?

गिद्ध कुछ देर बैठा रहा
और फिर उड़ गया
एक शून्य में
टहनी कुछ देर हिलती रही
और फिर वही स्थिरता
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

समझ की परिधि पर
बेबूझ पहेली सा गूमता रहा एक ही दृश्य
उस गिद्ध का यहाँ तक आना
टहनी को हिला
फिर शून्य वापस चले जाना
टहनी का कुछ देर हिल कर
फिर वही स्थिरता पाना

सृष्टि के नीयम
और इन्में बंधा जीवन
भूमिका क्या है उस ठूंठ की, खिड़की के उस पार?
भूमिका क्या है इस ठूंठ की, खिड़की के इस पार?


किन गिद्धों की प्रतीक्षा है
इन ऊंची सूखी टहनियों को?

कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

Sunday, February 14, 2010

सागर से मैं मिल आया





सागर के मौन पर लगा आया
आज मैं एक और
कडवा प्रश्न.........................................
परिविस्तार की प्रशंसा सुनाने का आदि
टुक रुक आज निहारता रहा
चुप चाप मुझे......................................


'दासी' लहरों का अहंकार
यौवन का नंगा शोर
रेत से ढकी पावन धरा की छाती पर
चढ़ कर उतर जाना
द्रित्राष्ट्र सा चुप केवल देख भर रहा है सागर
दुर्योधन की लज्जा हीन सभा
और द्रोपदी का चींखना ....चिल्लाना

प्रकृति का नियमानुसार जारी चाल चलन
और इस बीच एक दिन
लहरों का सीमायें लाघं उत्पात मचाना
'सुनामी' के शोर में
खो जाना न जाने कितनी चीख चीत्कारों का
लुप्त हो जाने, क्षण भर में, रेत के ..न जाते कितने मकानों का ....

मानवी क्रीडाओं* के वृत्त के केंद्र पर रखी आस्था
अनुत्तरित प्रशनो* के बेबूझ उत्तरों से
चक चौंध मानवता की आँखें ... सत्य से अपरिचित आज भी

इस बीच रेत के टूटे घर पर बिलखते
अनाथ असहाय अबोध एक बालक का केंद्र से आँखे फेर लेना
और जीवन वृत्त पर चक्कर लगाने से मना कर देना
उसका जीवन आखिर क्यूँ एक अपवाद है ?

आज लगा आया मैं सागर की स्थिरता पर
एक और प्रश्न

पीडाओं का पिछले जन्मों से लेखा जोखा बताकर
'केशव' का हंस कर आगे बढ़ जाना
'गीता' का एक बेबूझ पहेली बन आज भी मानवता मध्य इठलाना
"धर्मं की बार बार अधर्म पर विजय " की लोकोक्ति पर
धर्मं संग सदा साथ खड़े अधर्म का चुप चाप मुस्काना

दिन रात के दोहरे चहरे संग चलते जीवन
से निकल कर आज टहलता
सागर से मैं मिल आया
कुछ कडवे प्रश्नों मध्य उसे भी बेबस पाया .........................

Sunday, February 7, 2010

बैठी हूँ यादों के आँगन में


बैठी हूँ यादों के आँगन में
लम्बे अपने बाल फैलाए
दादी चोंटी बाँध रही है
माँ चूल्हे पर भात पकाये

"फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये "

बैठी हूँ यादों के आगन में
ओखल पर नैन टिकाये
खट-खट ओखल बोल रही है
और माँ कुछ गुन गुनाए


"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

बैठी हूँ यादों के आगन में
सखियों संग अपने हाथ फैलाए
कोई मेहंदी लगा रहा है
माँ ख़ुशी में dhol बजाये



"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

बैठी हूँ यादों के आँगन में
थाल में आरती सजाये
बेटा घर आ रहा है
सोच सोच जी हर्षाये

"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

Wednesday, February 3, 2010

कुंठित शिक्षक


एक टूटी चप्पल पहन कुछ दूर टहलता जाता हूँ
स्वयं को जूते वालों की भीड़ में अकेला पाटा हूँ

सूट-बूट में लिपटे जन को देख- देख घबराता हूँ
फिर कुछ आगे आगे बड़ यमुना तट पर सुस्ताता हूँ

परिस्थितियों से जो करूँ पलायन, मैं कायर कहलाता हूँ
अभाव सामर्थ का सहता आया, साहस का न सह पाता हूँ
विराट रूप ले परुष राम बनू तो, मैं ही राम बनाता हूँ

(पर) नही जोड़ता अब टूटती साँसों को
और न ही चप्पल सिलवाता हूँ

प्रतिदिन उदर आधा भर कर के यमुना तट तक आ जाता हूँ
शिक्षक हूँ मैं है राष्ट्र ये मेरा सोच सोच कुंठित हो जाता हूँ
एक टूटी चप्पल पहन कर कुछ दूर टहलता जाता हूँ .......................

Tuesday, February 2, 2010

समय कभी नही बढ़ता


पेंसिल के छिलके
जमीन पर पड़े हुए
और बगल में सफ़ेद पीसी हुई chalk*
सर झुककर देख रहा था ..."चुप चाप"

याद आ रहा था बचपन
वो स्कूल का एक दिन

वो नन्हे हाथ
वो पेंसिल
वो पेंसिल की नोक
नोक का टूट जाना
वो नयी नोक बनाना
वो चिलाकर रोना
वो खिल खिला कर हँसना

इस बीच एक तीव्र स्वर
एक फटकार
एक चीख
झक झोर रही थी मुझे
भूत से निकल कर
वर्त्तमान
में लाने को तत्पर

पर उस पीसी chalk
उस पेंसिल के छिलके से
आँख हट नही रही थी ..."उस दिन"

जमीन की सतह पर कुछ नही बदलता

समय कभी नही बढ़ता
जमीन समय से है अनजान
वर्त्तमान ही भूत था
भूत ही था वर्त्तमान


...........................

कहीं अकेले में



अखबार का पहला पृष्ठ
कुछ खबरें
कुछ तसवीरें
कुछ सच
कुछ झूट
पढता चाव से इन्हें समय बीतने के लिए
एक हिन्दू
एक मुसलमान,
और इस बीच ...कहीं अकेले में
रोता बिलखता एक छात्र
तड़पता एक पिता
आत्म-हत्या करता एक किसान

मुसाफिर


जीवन तट पर खड़ा मुसाफिर
देख रहा है जीवन धार
नितांत अकेला इस पार मुसाफिर
सोच रहा-क्या है उस पार

इक उम्र चल चूका मुसाफिर
अचल खड़ा है आज इस पार
देख नग्न- सत्य की तलवार मुसाफिर
सोच रहा- क्या है उस पार

अनुतरित प्रशनों से घिरा मुसाफिर
देख रहा है मृग तृष्णाओं का संसार
असमंजस मध्य इस पार मुसाफिर
सोच रहा -क्या है उस पार

कवी बन बैठा आज मुसाफिर
हृदय लिए भावनाओं का उबार
सर्वस्व हार चूका मुसाफिर
सोच रहा-ये कैसी हार

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...