सागर के मौन पर लगा आया
आज मैं एक और
कडवा प्रश्न.........................................
परिविस्तार की प्रशंसा सुनाने का आदि
टुक रुक आज निहारता रहा
चुप चाप मुझे......................................
'दासी' लहरों का अहंकार
यौवन का नंगा शोर
रेत से ढकी पावन धरा की छाती पर
चढ़ कर उतर जाना
द्रित्राष्ट्र सा चुप केवल देख भर रहा है सागर
दुर्योधन की लज्जा हीन सभा
और द्रोपदी का चींखना ....चिल्लाना
प्रकृति का नियमानुसार जारी चाल चलन
और इस बीच एक दिन
लहरों का सीमायें लाघं उत्पात मचाना
'सुनामी' के शोर में
खो जाना न जाने कितनी चीख चीत्कारों का
लुप्त हो जाने, क्षण भर में, रेत के ..न जाते कितने मकानों का ....
मानवी क्रीडाओं* के वृत्त के केंद्र पर रखी आस्था
अनुत्तरित प्रशनो* के बेबूझ उत्तरों से
चक चौंध मानवता की आँखें ... सत्य से अपरिचित आज भी
इस बीच रेत के टूटे घर पर बिलखते
अनाथ असहाय अबोध एक बालक का केंद्र से आँखे फेर लेना
और जीवन वृत्त पर चक्कर लगाने से मना कर देना
उसका जीवन आखिर क्यूँ एक अपवाद है ?
आज लगा आया मैं सागर की स्थिरता पर
एक और प्रश्न
पीडाओं का पिछले जन्मों से लेखा जोखा बताकर
'केशव' का हंस कर आगे बढ़ जाना
'गीता' का एक बेबूझ पहेली बन आज भी मानवता मध्य इठलाना
"धर्मं की बार बार अधर्म पर विजय " की लोकोक्ति पर
धर्मं संग सदा साथ खड़े अधर्म का चुप चाप मुस्काना
दिन रात के दोहरे चहरे संग चलते जीवन
से निकल कर आज टहलता
सागर से मैं मिल आया
कुछ कडवे प्रश्नों मध्य उसे भी बेबस पाया .........................
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