Tuesday, February 2, 2010

मुसाफिर


जीवन तट पर खड़ा मुसाफिर
देख रहा है जीवन धार
नितांत अकेला इस पार मुसाफिर
सोच रहा-क्या है उस पार

इक उम्र चल चूका मुसाफिर
अचल खड़ा है आज इस पार
देख नग्न- सत्य की तलवार मुसाफिर
सोच रहा- क्या है उस पार

अनुतरित प्रशनों से घिरा मुसाफिर
देख रहा है मृग तृष्णाओं का संसार
असमंजस मध्य इस पार मुसाफिर
सोच रहा -क्या है उस पार

कवी बन बैठा आज मुसाफिर
हृदय लिए भावनाओं का उबार
सर्वस्व हार चूका मुसाफिर
सोच रहा-ये कैसी हार

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मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)