Friday, May 25, 2012

स्वछन्द ख़याल



बचपन में half-pant को उतार कर सर पर पहन लेता था 
ये सोच कर के देखने वाले को लगेगा के टोपी पहनी है
तब ये ख़याल नहीं होता था के देखने वाला कितना हंसेगा
अधनंगे मुझ मूरख को देख कर के 

चींटियों के बनाये घर को रेखाओं से घेर देता था
ये सोच कर के के चींटियाँ अपने शहर का दायर जानेगीं
और मेरे हुक्म के हिसाब से गतिविधियाँ होंगी
तब ये ख़याल नहीं होता था के दायरे तो इंसान समझता है केवल 
रेखाओं का भला चींटियाँ क्या करें ?

जाने अनजाने में जो को कीड़ा पाँव टेल दब जाता था
उसके बच्चों के दुःख को सोच कितना रोया करता था
फूल पत्तियों से भी बाते करता था 
तब ये ख़याल नहीं होता था के मोह भला कीड़े क्या समझे
मोह तो हम जैसों का पिंजरा था 

दादी के पूजा के घर से मिश्री माखन चुरा कर खाता था
दोपहर में सब सो जाता मैं जग कर सोचा करता था
आसमान में तारे लगाने बूढा बाबा कब आएगा
तब ये ख़याल नहीं होता था के सूरज तारे दूर बहुत थें 
बूढा बाबा कोई इश्वर थोड़ी है 


2 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बचपन का हर ख़याल कविता जैसा.....................

और हमने अब जो कहा ,सोचा सब बेसुरा........

बहुत प्यारी रचना..
अनु

chakresh singh said...

सच कहा आप ने अनु जी. जीवन का सुर में होना बचपन सा साफ़ दिल होने के बराबर ही है.
धन्यवाद
-ckh-

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