अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Wednesday, May 23, 2012
कोई आवाज़ क्यूँ लगाता है
कोई आवाज़ क्यूँ लगाता है
हाथ दे कर मुझे बुलाता है
क्या भला चाहिए ज़माने को
आज अपना मुझे बताता है
फिर से अपनों ने कर दिया मुजरिम
गैर इलज़ाम कब लगाता है
मैं नहीं चाहता मगर फिर भी
चाह कर वो मुझे सताता है
आते देखा था दूर से उसको
नामाबर पर इधर न आता है
वक़्त इतना नहीं के सोचूँ मैं
कौन दरवाज़े खटखटाता है
ऐ खुदा! मानता हूँ मैं तुझको
पर तू क्या है नज़र न आता है
जिंदगी खैर बीत जायेगी
मर के देखें के चैन आता है
अब यहाँ दिल कहाँ रहा उसका
कब्र पर जो तू सर झुकाता है ?
-ckh-
मेरे सच्चे शेर
बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow) दरख़्तों को शिकायत है के तूफ़ाँ ...
-
(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
-
(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
-
उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा ख़ुद के हा...
No comments:
Post a Comment