Sunday, January 31, 2010

मौन



छुक छुक करती रेल
और पूरे चाँद की चांदनी तले चमकते
दूर तक विस्तृत सुनसान खेत
खिड़की पे चुप बैठा मैं सुन रहा हूँ
इक मौन

सर सर करती पवन
और उसके साथ झूमते मेरे बाल
थका हारा मैं
सोने की अभिलाषा लिए
सो नही पा रहा, है चरों ओर
इक भयावह मौन का शोर

और फिर वही दूर तक विस्तृत खेत
खेतों के सीने पे खिंची अनगिनत पग्दंदियाँ
हाँथ की रेखाओं जैसे
खेत के भाग्य को निर्धारित करतीं
दूर तक विस्तृत निद्रा, जीवन रहित रात
और बस मैं और चाँद की (उधार की) चाँदनी

जाने क्यूँ मुझे अब तक जगा रखा है
इस मौन ने
जीवन तू हमसफ़र है, इक राह चल चुके हैं साथ हम
कहीं आगे कोई मोड़ होगा जहाँ तुझसे अलग हो जाऊँगा मैं

और इस बीच पटरियां बदली रेल

क्या लिख रहा हूँ
हिलती इस कलम से चलती रेल में
कागज के सीने पे
पग्दंदियाँ खीचता चला जा रहा हूँ
क्यूँ नही वो मौन इन कागजों में उतर पता है
क्यूँ वह माटी का पुतला दूर खेत में चिड़ियों को बैठने से रोकता है
क्यूँ ये रेल रुकती नही कहीं

Wednesday, January 27, 2010

कुछ भूल सकता नही

कुछ बातें भूल सकता हूँ ...कुछ भूल सकता नही
कुछ याद रहता नही मुझे, कभी कुछ भूल सकता नही ...................................0



पल भर का इक मोड़ पर रुक जाना, वो ठहराव क्या था ?
अनजान पथिक संग बहते चले जाना, वो बहाव क्या था ?
आज पूछ रहा हूँ अकेला दीवारों से मैं
दे गया बिछड़ कर जो वो मुझे, आखिर वो घाव क्या था ?
कुछ घाव सह सकता हूँ, कुछ सह सकता नही
कुछ बातें भूल सकता हूँ , कुछ भूल सकता नही ..................................................1

हार कर तकलीफ में मुझे, वो पुकारना क्या था ?
हाथ मेरा थाम तूफ़ान में, वो समहलाना क्या था ?
पूछ रहा हूँ आज हंस कर खुद से मैं
फिर इक दिन मुझे अनजान कह, वो मुह फेर लेना क्या था ?
कुछ बेरुखी माफ़ कर सकता हूँ , कुछ भी माफ़ कर सकता नही
कुछ बातें भूल सकता हूँ , कुछ भूल सकता नही ......................................................2


मुझसे सारी बातें बताना , वो अटूट विशवास क्या था ?
मुझमें सब कुछ उचित पाना, वो मुझमें ख़ास क्या था ?
पूछ रहा हूँ सब जान कर भी मैं
बाज़ार में मुझे नीलाम करने का, वो प्रयास क्या था ?
लुटा सकता हूँ सब कुछ, कुछ लुटा सकता नही
कुछ बातें भूल सकता हूँ कुछ भूल सकता नही....................................................3

Wednesday, January 20, 2010

शर्मा जी शर्म करो

शर्मा जी शर्म करो
थोड़ा तो धैर्य धरो

आज ही तो
बेटा बना है कलेक्टर
आज ही थोड़ी
लूट लो गे सबका घर

ऊपर वाले से जरा डरो
शर्मा जी शर्म करो

अरे काफी कमाएगा
है सरकारी नौकरी
सुना कवारी है
मिनिस्टर की छोकरी

दहेज़ demand तोडा नरम करो
शर्मा जी शर्म करो


सुना है पोस्टिंग
बीकानेर में है
वहां का भी कानून
अंधेर में है

कुछ तो अच्छे करम करो
शर्मा जी शर्म करो

Tuesday, January 19, 2010

गीता सार क्या है?

घड़ी की गणना क्या है
समय का बड़ना क्या है
क्या है वर्त्तमान का भूत हो जाना
रवि का उतरना चड़ना क्या है ........१



इन प्रशनो* में तेरा विचरण क्या है
'चक्रेस' ये पागलपन क्या है
क्या है सुबोध संज्ञान का होना
ये मुड़ता अज्ञान क्या है .................२

शून्य में अकेला होना क्या है
कुछ पाकर खो देना क्या है
क्या है अनवरत चलते जाना पथ पर
चलकर कुछ दूर रुक जाना क्या है ..................३

परम सत्य विज्ञान क्या है
चक्रेस गीता कुरान क्या है
क्या है भीड़ में खो जाना
जीवन का संविधान क्या है .................४

कर्म फलों का भार क्या है
नश्वर है तो ये संसार क्या है
क्या है कुरुक्षेत्र मध्य आज 'चक्रेस' का रोना
केशव आज गीता सार क्या है ..................५

Sunday, January 17, 2010

पापा

पापा आप की स्कूटर पर
आगे खड़े होकर स्कूल जाना

गेट पर खड़े रहना
अन्दर जाने से घबराना

वो भारी बस्ता टांग कन्धों पर
सर झुका टीचर से शर्माना

गले में टाँगे पानी की बोतल
लंच में टिफिन चुराना

पापा तेरे आने तक गेट पर
खुद को फुसलाना बहलाना

याद आ रहा आज सब कुछ
वो स्कूल से कॉलेज तक आना

और आज अचानक इक कंपनी में
यूँ ही placed हो जाना

पापा तेरे कन्धों से उतर आज
मैंने ये माना

ये उचाई कितना कम है, कितना
कठिन है तुझसा कद पाना

खुसी मनाऊं, गाने गाऊँ
या याद करूँ तेरी थाली में खाना ?

पापा मुझे ये सब नही चाहिए
घर से दूर बस नही जाना

मेरी पीड़ा मैं ही जानू
क्या नापेगा कोई पैमाना ?

और इसपर बधाई लगती है मानो
रूठे मन पर ताना

पापा अब क्या कहूँ मैं तुमसे
अब तक बस इतना जाना ....

तेरे बिन नही हूँ कुछ भी
दुःख दे गया नौकरी पाना |

Saturday, January 16, 2010

मृत

मौसा तुम दम तोड़ गए मेरी अभागी बाँहों में
नन्हे पुत्रों के नाम थें बस तुम्हारी अंतिम आँहों में
मैं निठुर चुप बैठा रहा
दो अश्रु न आ सके मेरी शिथिल निगाहों में

ab* अपलक मुझको देख रहे हो मृत मूरत बन
भरी जवानी में यूँ तुम क्यूँ छोड़ चले तन?
मेरी भी नियति निराली है प्यारे मौसा
कैसे सम्झाहूँ है खुद को कुंठित आज मेरा ही मन?

कैसे कहूँ आज नान्हे तेरे पुत्रों से ये
तुम नही हो, नश्वर था, बस शरीर है ये
केशव क्यूँ आज तुम चुप हो प्रतिमा बन
कैसे बुझा दूँ आरती जो मौसी हैं jalaye* लिये?

एय कविता तुझे यहीं छोड़ दूँ मैं
कलम आज स्वयं ही तुझे तोड़ दूँ मैं
क्यूँ न आज ही अभागा
ये शरीर इसी पल छोड़ दूँ मैं ?


गीता के श्लोक आज क्यूँ मौन पड़े हो
देव दारूद बन शांत खड़े हो
केशव तेरी मुरली क्या भूल गयी स्वर
संवेदन लुप्त हो गयीं क्या महाभारत जबसे लड़े हो ?

केवट

केवट ने नाव जब पार लगायी
सिये लक्षमन संग उतारे रघुराई
गंगा जी भी मगन खाड़ी हैं -२
प्रभु मूरत निरखत न अघाई .....


दृश्य देख रघुवर मुस्काई
"देहूं को कछु नही है मोरे भाई "
तुलसी तुमने खूब लिखा है -२
निर्धन खड़े हैं आज रघुराई ....

केवट से केवट तव कहे हर्षाई (यहाँ राम जी को भी केवट ही कहा है)
"प्रभु जिन दो मोहे आज उतराई
आऊं जब प्रभु घात तिहारे -२
दियाहूँ नवका मोरी तब पार लगाईं ..."

फिर- फिर पढूं प्यास मिटत न मिटाई
पंक्ति - पंक्ति में प्रभु मूरत पायी
'चक्रेस'' तुमको अब देखन चाहूँ -२
अब तक कहीं दियेहीं न दिखाई .....

Sunday, January 10, 2010

और क्या कहूँ?

कल्पना-परिमिति नापता रहा मैं
और क्या कहूँ?

चहूं ओर स्पंदित अंतर्द्वंद मध्य घिरा मैं
और क्या कहूँ?

भावना हृदय सतह पर वाष्पित होती रहे
मेघ बन गरजा करे
मैं और क्या कहूँ?

मस्तिस्क गर्जन से स्पंदित निरंतर
मैं और क्या कहूँ?

अनुध्वानी आत्मा की सुन मौन खड़ा मैं
और क्या कहूँ?

उपहास, व्यंग, क्रोध अनसुना कर चला मैं
और क्या कहूँ?

नियति न दे सकी विश्रांति मुझे
मैं और क्या कहूँ ?

अनवरत चाहूँ रोकना अभिव्यक्ति के परिविस्तार को मैं
और क्या कहूँ?

मौन मेरा श्रेठ था
मैं और क्या कहूँ?

चाह नहीं अपवाद बनू मैं
और क्या कहूँ?

असमंजस घिरा यहाँ खड़ा मैं
और क्या कहूँ?

पदचिन्ह

आँखें बंद कर देख रहा मैं किले की ऊचाई से
गंगा में यमुना का मिलना
या कह लो यमुना में गंगा का




गीली रेत पर पड़े कुछ
पदचिन्ह चुप चाप चलतेजा रहे हैं कहीं
या कह लो छोड़ चला कोई इन्हें यहीं



अनुसरण करता मन ही मन इन पदचिन्हों का
जा मिलता हूँ जल में मैं स्वयं ही नंगे पाँव निडर
या कह लो खीचती जाती है मुझे अनवरत धारा अपने साथ उधर

अनिर्वचिनीय भावनाओं का उबार मन में और-
डूब रहा इस धार में मैं उद्भव की आस लिए
या कह लो आ पंहुचा यहाँ आत्मिक प्यास लिए


मानवीय पराभव से दूर मध्य धार में
कदाचित मैं मुखरित हो जाऊं
और अश्रूकड़ बन जल कल कल में खो जाऊं

संगीत


मुखरित होता रहा
क्षुब्ध मन सितार पर
और मैं रोता रहा
आत्मा की झंकार पर

संगीत मौन तोड़ता
बहरे इस संसार पर
अभिव्यक्त अव्यक्त करता रहा
अपनी कल्पना निडर

और उसका टोकना
सुर के इस उठान पर
अनसुना कर चला मैं
संवेदना चले जिधर

मौन कुंठा छंदबद्ध हुई
आज है बनी लहर
अनुगूंज आत्मा की
स्पंदित है चारो पहर

Friday, January 8, 2010

ये सभ्यता

समय के साथ अनुतरित प्रश्नों का सार्थकता खोते जाना
विश्वास की बैसाखी पकडे उत्तरों में केवल एक मौन पाना
आज क्षितिज पर आँखें टिकाये, स्थिर खड़ा मैं
फिर वही प्रश्न पूछता हूँ, आखिर कब तक यूंही खुद को बहलाना?

ईश्वर, भागवद, पूरण, धर्म की चौ दिवारी के अन्दर बैठी ये सभ्यता
मौन खड़ी प्रश्नों को सुन कर, कहाँ है इसकी महान निर्भयता
हृदय के इस पीड़ा और आलाप का कारन बनी ये
चुप लज्जाहीन खड़ी सुन रही, है क्रूर ये है इसकी निर्दयता

मृग त्रिश्नाओं के मध्य खड़ा मैं सत्य का प्यासा
संग मरती जाती प्रतिपल मेरे, उसे जानने की मेरी जिज्ञासा
ये निर्दयी समाज अधूरा रह जाएगा चौ दिवारी में
कोई समझाओ अब इसको जीवन की सच्ची परिभासा

सब मोह माया है

रात के कुछ २ बजे होंगे
६ का अलार्म लगाये
नींद के आने की प्रतीक्षा भर कर रहा हूँ
टेबल lamp के नीचे पड़े कोरे कागज के आमत्रण
पर यूंही स्याही बिखेरता जा रहा हूँ उसकी छाती पर
चुप-चाप अकेले
अपनी ही साँसों को सुनता
अपने ही लिखे को निहारता
सोच रहा हूँ- सब मोह माया है


घर से दूर, कॉलेज में, यहाँ...जाने कबसे
घर ढूंढ रहा मैं
अपनों से दूर अनजानों में
घर ढूंढ रहा मैं
छात्र जीवन का आधार बनी
पांच शिलाएं*
जीवन बन कर रह गया
पाषंड चरों ओर शिलाएं
इस बीच आत्मा का खुद ही कहना-
सब मोह माया है
एक बार के लिए हंसा देता है मुझे
माँ से दूर, घर से दूर
दूर स्वयं से जाने कबसे
और एक आरोप के बीच बिताता जीवन
की मैं अपनी ही दुनिया में खोया रहता हूँ
दूसरों से अलग थलग
भावुकता की इस चरम सीमा पर
सब मोह माया है , कह हंस देता हूँ
हाँ माँ, तुझसे दूर भी अब जी लेता हूँ ......

Wednesday, January 6, 2010

समय की तेज धार पे मचलता चला गया

समय की तेज धार पे चलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
समय की तेज धार पे चलता चला गया

कभी किसी राह पर कोई मिला नही
आँखें किसी यार के लिए तरस गयीं
कभी भरे बाज़ार से निकलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

प्रशनों के माया जाल मैं बच सका नही
ओल्झा रहा,मौन रहा कविता लिखी (*likha) कभी
mrigtrishda* उत्तरों की देख मचतला चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

हवा की गुब्बारों से लोग मिले सभी
फूटते-उड़ते रहे वो, जिनकी डोरें थी हाथ में कभी
खाली हाटों को नयन अश्रू से मलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

क्यूँ मन ये मेरा खुद में मुझे पाता नही कहीं ?
क्यूँ तन ये मेरा नाम भर बस है और कुछ नही ?
खुद से खुद के द्वन्द में, खुद में ढलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

समय की तेज धार पे मचलता चला गया

सूखे पत्ते


अतीत के कुछ पन्ने पलट देखता हूँ
कुछ दूर तक नज़र जा कर रुक जाती है मानो
कुछ दो चार चेहरे कुछ चार छे पल
इन सबके बीच कहीं खोया मेरा जीवन
क्यूँ इन पन्नों में मैं नही हूँ ?
बस कुछ यादें और फिर वही खामोशी
एक स्वप्न बन कर रह गया है अतीत मानो
मैं नहीं पर मुझसा एक यायावर इन पन्नों में
जाने अबतक क्या ढूंढ रहा है?
सूखे पत्तों से ढंके पीछे जाते रास्ते पर
अनायास ही चले जा रहा है
किसी खोज में है वो .... पत्तों की चढ़चढ़ की आवाज़ों से हृदय काँप जाता है मेरा
मानो ये पत्ते हों मेरे अस्तित्व से जुड़े सारे अनुत्तरित प्रश्न
सफलता के इस शिखर पर इन प्रशनों का हृदय सतेह को कुरेदना
विचलित कर के मुझे एक मौन के साथ अकेला छोड़ देना
और बार बार मुझे विवश कर देना
किसी अदृश्य इश्वर में मैं खुद को खो दूं
ये सब मेरी समझ से बहार है आज
किसी अज्ञात की व्यक्तिगत अभिलाषा और एक क्रूर प्रयास है ये
मुझसे जीते जागते शास्वत सत्य को एक स्वप्ना बनाने की
और अतीत की और जाती राह पर एक सूखे पत्ते सा कर छोड़ने की

Saturday, January 2, 2010

सिंगल ही है बढ़िया

इक ख्वाहिश थी जनम दिन की रात उसके hostel तक जाता
दांतों में दबा गुलाब pipe से ऊपर चढ़ जाता

उसको इस अंदाज में पहली बार मिल, हाले दिन कह आता
इक गुलाब और इक dairy milk से ज्यादा क्या मैं दे पाता

पर प्यार मेरा होता सच्चा, मेरी आँखों में नज़र उसे भी आता
यूँ शुरू होती अपनी कहानी, मैं भी lover boy कहलाता

पर हाय! मेरी किस्मत ऐसी, जिस कॉलेज से है मेरा नाता
इक भी लड़की का चेहरा दिल को मेरे न लुभा पाता

Katrina सी कोई होती, झट जोड़ लेता मैं नाता
Akshay से कोई कम थोड़ी हूँ, माना है बड़ा उसका (बैंक) खाता

पर ये तो हैं मेरे मन की बातें, नया दौर न मुझसे देखा जाता
SMS का है जमाना, अब कौन इस तरेह darling के हॉस्टल जाता?

मेसेज में happy लिख कर, copy paste करते हैं saved data
भाई यूँ तो सिंगल ही है बढ़िया, कम से कम फ़ोन बिल तो है कम आता

अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर एक उपहास


सर्द सुबह की और भारी रजाई से दबा मैं
सोच में लेटा था की चाय की खोज किसने की?
नोबेल पुरस्कार उसे मिला या नहीं ?

बिस्तर पे लेटे दो चार शेर उसकी तारीफ में मार भी दिए
पर चाय भी कोई ठण्ड थोड़ी जो बिना मगाए द्वार तक आजाये
यथार्थ का बोध मन को था सो झिझक कर उठ गया
मुह धोने के लिए नल तक सकुचाता कांपते पहोच तो गया हूँ
पर काफी समय से एक उलझन में मूरत बन खड़ा हूँ

जो नल खोला तो कुरुक्षेत्र के मध्य अभिमन्यु सा मैं असहाय रह जाऊँगा
हॉस्टल का गीज़र किसी महान योद्धा के वस्त्र सा टंगा
किसी अजूबा घर में रखा मानो अपनी योग्यता बखान भर कर रहा है
उपयोगिता से उसका कोई आशय नही है
जाने कबसे यहाँ दीवार पे टंगा हम जैसे असहाय छात्रों पे इक व्यंग बना चिपका है ये

बहरहाल इस युद्ध से किसी तरह निकल
चाय की लालसा लिए ढाबे की तरफ कदम अब बढ़ चले हैं

बादलों या शायद धुंध की परत में छिपा सूरज
और समय का बदलना केवल घडी की धरातल पर
प्रहर का बोध करने गरज न रही सूरज में अब
और इस बीच ओस की बूंदों का
सूरज की रोक-टोक के बिना जमीन पर अटखेलियाँ खेलना

वो मजदूर किस तरह ढाबे की चाय में जीवन पा रहा है?
ये महिलाएं फूल तोडती ईश्वर आराधना में लीन मानो कुछ यथार्थ से अपरिचित
या कह लो अविचलित कैसे यूँ हंस देतीं हैं और सखी का हाल पूछ बैठती हैं ?
ऐसे मौसम में भला किसी मानव का क्या हाल हो सकता है ?
शायद छात्र शरीर ज्यादा सुकोमल हो सोच कर मुह फेर लेता हूँ

ढाबे पे वो छोटा बच्चा कैसे उन बर्तनों को धो रहा है?
इक फटा पुराना स्वेटर और एक टोपा
चाय की लालसा उसके चेहरे पर नही दिखती
न रहा गया जा हंस कर पूछ दिया मैंने -
"मुन्ना घर से इतनी जल्दी काम पर आगये ? ठण्ड नही लग रही क्या ?"
" घर नही है मेरा कोई, यहीं रहता हूँ ..काम नही करूंगा तो खाना नही मिलेगा सर "
कह कर वो फिर से अपने कर्म भूमि का अर्जुन बन गांडीव उठाये मानो चल पड़ा

स्तब्ध कुंठित स्वर में ईशवर से आत्मा ने मानो कुछ कहा, पर मैं सुन न सका
और बिना चाय पिए हॉस्टल वापस लौट आया

जीवन की लयबद्ध धारा में मानो इस सुबह ने विराम सा लगा दिया हो
एक तीव्र स्वर की गूँज ने झकझोर कर रख दिया है मानो
अपनत्व के बीच इक खोखलेपन का अनुभव कर रहा हूँ
उस जैसे बालक के लिए मैं दीवार पे टंगे
एक खराब गीज़र सा नही तो और क्या हूँ ?
भावनाओं की परिधि पर एक ही प्रशन फेरे लगा रहा है
और मेरी अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर एक उपहास बने खड़ा है ?

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...