Saturday, January 16, 2010

केवट

केवट ने नाव जब पार लगायी
सिये लक्षमन संग उतारे रघुराई
गंगा जी भी मगन खाड़ी हैं -२
प्रभु मूरत निरखत न अघाई .....


दृश्य देख रघुवर मुस्काई
"देहूं को कछु नही है मोरे भाई "
तुलसी तुमने खूब लिखा है -२
निर्धन खड़े हैं आज रघुराई ....

केवट से केवट तव कहे हर्षाई (यहाँ राम जी को भी केवट ही कहा है)
"प्रभु जिन दो मोहे आज उतराई
आऊं जब प्रभु घात तिहारे -२
दियाहूँ नवका मोरी तब पार लगाईं ..."

फिर- फिर पढूं प्यास मिटत न मिटाई
पंक्ति - पंक्ति में प्रभु मूरत पायी
'चक्रेस'' तुमको अब देखन चाहूँ -२
अब तक कहीं दियेहीं न दिखाई .....

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मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)