Friday, January 8, 2010

सब मोह माया है

रात के कुछ २ बजे होंगे
६ का अलार्म लगाये
नींद के आने की प्रतीक्षा भर कर रहा हूँ
टेबल lamp के नीचे पड़े कोरे कागज के आमत्रण
पर यूंही स्याही बिखेरता जा रहा हूँ उसकी छाती पर
चुप-चाप अकेले
अपनी ही साँसों को सुनता
अपने ही लिखे को निहारता
सोच रहा हूँ- सब मोह माया है


घर से दूर, कॉलेज में, यहाँ...जाने कबसे
घर ढूंढ रहा मैं
अपनों से दूर अनजानों में
घर ढूंढ रहा मैं
छात्र जीवन का आधार बनी
पांच शिलाएं*
जीवन बन कर रह गया
पाषंड चरों ओर शिलाएं
इस बीच आत्मा का खुद ही कहना-
सब मोह माया है
एक बार के लिए हंसा देता है मुझे
माँ से दूर, घर से दूर
दूर स्वयं से जाने कबसे
और एक आरोप के बीच बिताता जीवन
की मैं अपनी ही दुनिया में खोया रहता हूँ
दूसरों से अलग थलग
भावुकता की इस चरम सीमा पर
सब मोह माया है , कह हंस देता हूँ
हाँ माँ, तुझसे दूर भी अब जी लेता हूँ ......

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

सब मोह माया है , कह हंस देता हूँ
हाँ माँ, तुझसे दूर भी अब जी लेता हूँ ......


इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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