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मुखरित होता रहा
क्षुब्ध मन सितार पर
और मैं रोता रहा
आत्मा की झंकार पर
संगीत मौन तोड़ता
बहरे इस संसार पर
अभिव्यक्त अव्यक्त करता रहा
अपनी कल्पना निडर
और उसका टोकना
सुर के इस उठान पर
अनसुना कर चला मैं
संवेदना चले जिधर
मौन कुंठा छंदबद्ध हुई
आज है बनी लहर
अनुगूंज आत्मा की
स्पंदित है चारो पहर
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