Sunday, January 10, 2010

पदचिन्ह

आँखें बंद कर देख रहा मैं किले की ऊचाई से
गंगा में यमुना का मिलना
या कह लो यमुना में गंगा का




गीली रेत पर पड़े कुछ
पदचिन्ह चुप चाप चलतेजा रहे हैं कहीं
या कह लो छोड़ चला कोई इन्हें यहीं



अनुसरण करता मन ही मन इन पदचिन्हों का
जा मिलता हूँ जल में मैं स्वयं ही नंगे पाँव निडर
या कह लो खीचती जाती है मुझे अनवरत धारा अपने साथ उधर

अनिर्वचिनीय भावनाओं का उबार मन में और-
डूब रहा इस धार में मैं उद्भव की आस लिए
या कह लो आ पंहुचा यहाँ आत्मिक प्यास लिए


मानवीय पराभव से दूर मध्य धार में
कदाचित मैं मुखरित हो जाऊं
और अश्रूकड़ बन जल कल कल में खो जाऊं

No comments:

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...