Wednesday, January 6, 2010

समय की तेज धार पे मचलता चला गया

समय की तेज धार पे चलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
समय की तेज धार पे चलता चला गया

कभी किसी राह पर कोई मिला नही
आँखें किसी यार के लिए तरस गयीं
कभी भरे बाज़ार से निकलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

प्रशनों के माया जाल मैं बच सका नही
ओल्झा रहा,मौन रहा कविता लिखी (*likha) कभी
mrigtrishda* उत्तरों की देख मचतला चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

हवा की गुब्बारों से लोग मिले सभी
फूटते-उड़ते रहे वो, जिनकी डोरें थी हाथ में कभी
खाली हाटों को नयन अश्रू से मलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

क्यूँ मन ये मेरा खुद में मुझे पाता नही कहीं ?
क्यूँ तन ये मेरा नाम भर बस है और कुछ नही ?
खुद से खुद के द्वन्द में, खुद में ढलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया

समय की तेज धार पे मचलता चला गया

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