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ये शाम कहीं फिर मुझसे न
कोई कविता लिखवा जाए
कहीं अनकही बात कोई फिर
इन पन्नो पे न आ जाए
हाथ बाँध दो कोई मेरे
मुझे कहीं और ले जाओ
शोर मचा दो बस्ती में
मौन मुझे बस दे जाओ
मन के गलियारों में फिर से
भूला बचपन न छा जाए
क्यूँ करती हो अट्हास मुझसे
ऐ डूबती किरणों बोलो
उपहासित करते हो क्यूँ मुझको
शब्द माला के वर्णों बोलो
अंतर मन की पीड़ा का
कोई थाह कहीं न पा जाए
न करो बात मुझसे तुम ऐ मन
भावुकता से मैं दूर सही
नहीं चाह मुझको भावों की
चूर ह्रदय सो चूर सही
कहीं कोई स्नेह भाव से
घाओं को न सहला जाए
ह्रदय का मद्धम साँसों का
रुक रुक कर आना जाना
मंद सुरीली पुरवाई का
कानों में कुछ कह जाना
कहीं पल भर का सुख दे कर
मुझको न रुला जाए
6 comments:
प्रियवर चक्रेश सिंह जी
नमस्कार !
बहुत अच्छा गीत लिखा है
उपहासित करते हो क्यूँ मुझको
शब्द माला के वर्णों बोलो
अंतर मन की पीड़ा का
कोई थाह कहीं न पा जाए
वाह ! वाह ! बहुत सुंदर !! बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आपके ब्लॉग पर लगी अन्य काव्य रचनाएं भी बहुत ख़ूबसूरत है ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
bahut bahut dhanyavaad राजेन्द्र ji meri kavitayen padhne ka protsaahit karne ka...
हमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
अच्छा नवगीत लिखा ,चक्रेश जी,
बहुत अच्छी लगा पढ़ कर !
बहुत बधाई !
dhanyavaad misir sir aur sanjay ji ...aap log mujhe nirantar protsaahit karte rehte hain ...main aap dono ka hi bahut aabhaari hun
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