हर नज़्म तुम्हारे बातों की
मैं कब मंचों पर आ पहुंचा
किताब लिए जज़बातों की
हर शब्द तुम्हारे चेहरे से
चुनकर के कविता में आयें
कोरे कागज़ पर होंठ तेरे
तस्वीरों में रंग भर जाएँ
श्रींगार करूँ कैसे शब्दों में
रूप तेरा अब ले आऊं.…
मेरी उलझन कुछ दूर करो
थोड़ा सा तो मैं लिख पाऊँ
मैं कौन भला इस महफ़िल में
कविओं के इन रातों की.....
हर गीत तुम्हारी देन प्रिये
हर नज़्म तुम्हारे बातों की
सब लोग यहाँ जी भर कर के
मुझको जो सुनने आयें हैं
कैसे बतलाऊँ अब इनको
के शब्दकोष मुस्काएं हैं
जो छवि तुम्हारी बसती है
मेरे अतृप्त कविमन में
कैसे बुन दूँ अब मैं उसको
सात सुरों के दर्पण में.…
अधिकार नहीं कुछ मेरा तुमपर
सीमाएं हैं हालातों की
हर गीत तुम्हारी देन प्रिये
हर नज़्म तुम्हारे बातों की..
हर नज़्म तुम्हारे बातों की..
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