तरस जाओगे छूने को जो पहलू से गुज़र जाएँ
बहोत बाँधा है किस्मत के हमारे पाँव को लेकिन
वो सैलाब नहीं हैं हम जो किनारों पर ठहर जाएँ
राख हो कर के ये हस्ती इक दिन उड़ जानी है
जीतेजी भला फिर क्यूँ तूफानों से हम डर जाएँ
हवा का रुख बदलता है सफीनों को ज़रा देखो
इसी उलझन में फंसे हैं के समंदर में किधर जाएँ
खुदी पर नाज़ है न ही खुदा का इख्तियार इनको
नए लोगों का जमघट है उदासी है जिधर जाएँ
तमन्ना दूर जाने की शहर से खींच लायी है
सोचते हैं के अब चक्रेश नूर बनकर के बिखर जाएँ
-ckh
No comments:
Post a Comment