Wednesday, July 23, 2014

बताता है तबस्सुम भी, के सांसें हो चलीं भारी



बताता है तबस्सुम भी, के सांसें हो चलीं भारी
मगर अब भी लिए हूँ मैं, निगाहों में रवादारी

उदू से क्या गिला कीजे, वो कहता है तो सुन लीजे
ज़रा दिन की ख़लिश उसकी, ज़रा दिन की अदाकारी

उभरती है मेरे दिल में, वही क्यूँ बारहाँ गोया
कोई तस्वीर अपनी हो, कोई दिल की कलमकारी

दिखावा है जिधर देखो, ये लोगों के शहर क्या हैं
तमाशा है मेरे आगे, बताती है नज़र खारी

दीवानों की मगर कोई, कहीं पे बस्तियां होंगी
वहीं अपना ठिकाना कर, वहीं गुज़रे उमर सारी

नुमायाँ है वज़ूद अपना, भी सागर सा कहाँ होगा 
खुदी पे हौसला कब था, थी ख़ुद से वफादारी




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मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)