घर में जबसे तंगी है मज़बूरी है
रिश्तों में कुछ तल्ख़ी है कुछ दूरी है
हम चादर छोटी कर के कितना बचते
साँसों पर भी दो-आना दस्तूरी है
मैं शायर होकर के भी क्या क्या लिख दूँ
माँ की सिसकी पर हर नज़्म अधूरी है
अबके तूफाँ में छप्पर ना बच पाया
किस मुंसिब की फ़तवों पे मंज़ूरी है ?
जिनसे बातें होतीं थीं वो कब रूठें
क्या जानूँ क्यूँ तनहा हूँ महजूरी है
बैठें हैं फ़ुरसत के सब दिन आने को
उनसे मिलने की तैयारी पूरी है
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