ज़िन्दगी की अज़ब
रवायत थी
एक जाँ थी
बड़ी शिकायत थी
चाहते तो थें
कर नहीं पाये
सबकी ऐसी ही
कुछ हिकायत थी
काफ़िरों का क़तल
भी जायज़ था
भूलता हूँ ये
कोई आयत थी
मैं सियासत से बच
कहाँ पाता
बेज़ुबाँ होने से
रिआयत थी
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा ख़ुद के हा...
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