Saturday, August 2, 2014

आते रहे हो ख़्वाबों में ऐ यार कबसे तुम

आते रहे हो ख़्वाबों में ऐ यार कबसे तुम 
कैसे कहोगे अलविदा अब जाँ-बलब से तुम ? 

चश्म-ओ-चराग़-ऐ-दरमियाँ फैली है तीरगी 
दे दो मुझे भी रौशनी छू कर के लब से तुम 

निस्बत में तेरी साक़िया काफ़िर हुआ के मय  
पीता नहीं था पी रहा हूँ बैठे हो जबसे तुम 

Wednesday, July 23, 2014

घुंघरू न बांधता ख़्वाबों के पाँव में


घुंघरू बांधता ख़्वाबों के पाँव में
मैं मर गया होता इस धूप छाँव में

बच्चों की टोलियां लो दौड़ वो पड़ीं

लॉरी कोई देखो आई जो गाँव में

ज़िन्दगी की अज़ब रवायत थी



ज़िन्दगी की अज़ब रवायत थी
एक जाँ थी बड़ी शिकायत थी

चाहते तो थें कर नहीं पाये
सबकी ऐसी ही कुछ हिकायत थी

काफ़िरों का क़तल भी जायज़ था
भूलता हूँ ये कोई आयत थी

मैं सियासत से बच कहाँ पाता

बेज़ुबाँ होने से रिआयत थी

कभी गुमसुम, कभी हैराँ, कभी नाशाद कर देंगी



कभी गुमसुम, कभी हैराँ, कभी नाशाद कर देंगी
तेरी यादें, मेरे हमदम, मुझे बर्बाद कर देंगी


कोई दिन और बाकी हैं शब--फुरकत गुज़रने दो
मुझे मुझसे मेरी साँसे रिहा आज़ाद कर देंगी


नहीं मुमकिन ज़माने से मिले बिन मैं गुज़र जाऊं

मेरी ग़ज़लें कोई शायर, सफर के बाद कर देंगी

अगर आवाज़ दूँ तुमको मुझे मिलने तो आओगी



अगर आवाज़ दूँ तुमको मुझे मिलने तो आओगी
चलो मेरे नहीं लेकिन ये वादा क्या निभाओगी?

बहोत चाहा सनम तुमको दीवानों सा मगर देखो
मेरी हो सकी फिर भी उमर भर को सताओगी

मेरा हर गीत तुमसे है जो मैं तुमको सुनाता हूँ
कहूँ दिल की तो क्या दिल से मुझे तुम सुन भी पाओगी?

वो जुल्फों के खमों को मैं कभी सुलझा नहीं पाया
मेरी उलझन को कंघे से कहाँ सुलझा भी पाओगी?

मना लूंगा तुम्हें चाहे मुझे दिल से गिरा देना
जो मैं रूठा कभी तो क्या मुझे भी तुम मनाओगी


बताता है तबस्सुम भी, के सांसें हो चलीं भारी



बताता है तबस्सुम भी, के सांसें हो चलीं भारी
मगर अब भी लिए हूँ मैं, निगाहों में रवादारी

उदू से क्या गिला कीजे, वो कहता है तो सुन लीजे
ज़रा दिन की ख़लिश उसकी, ज़रा दिन की अदाकारी

उभरती है मेरे दिल में, वही क्यूँ बारहाँ गोया
कोई तस्वीर अपनी हो, कोई दिल की कलमकारी

दिखावा है जिधर देखो, ये लोगों के शहर क्या हैं
तमाशा है मेरे आगे, बताती है नज़र खारी

दीवानों की मगर कोई, कहीं पे बस्तियां होंगी
वहीं अपना ठिकाना कर, वहीं गुज़रे उमर सारी

नुमायाँ है वज़ूद अपना, भी सागर सा कहाँ होगा 
खुदी पे हौसला कब था, थी ख़ुद से वफादारी




हमने दिल के दरवाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को



हमने दिल के दरवाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को
बाम--दर की आवाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को

मुमकिन है के ख़ामोशी में, वो नाम हमारा लेती हो
लेकिन ऐसे अंदाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को

हर सपना पूरा हो जाए, ऐसी तो कोई शर्त नहीं
उम्मीदों की परवाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को

गर जिन्दा रहना इक शै थी, तो इक शै थी मज़बूरी भी

मुफ़लिस-जाँ ने सब नाज़ों से, सौ बार कहा चुप रहने को

मुझे थाम लो दोबारा कहीं मैं फ़िसल गया तो?



मुझे थाम लो दोबारा कहीं मैं फ़िसल गया तो?
अजी अब आज़माओ मेरा दम निकल गया तो?

कहो मुझसे आशना क्यूँ होती हो तुम मेरी जाँ
कहीं मौसमों के पर्दों सा मैं भी बदल गया तो?

यहाँ ख़ाकसार हो कर अभी बेंच तो दूँ खुद को
मगर बेचने से पहले मेरा दिल पिघल गया तो?

कोई जाँ-निसार होकर कभी उसको पा सका है
इसी आस में है बिस्मिल कहीं वो दहल गया तो?

मुझे गैर कर के अब जो किसी और के हुए हो
ज़रा ये मुझे बता दो कभी दिल मचल गया तो ?

कभी महफ़िलों में जाओ तो संभल के जाम थामो

उठाने से पहले सोचो के सागर उबल गया तो?

मैं तुम्हारे बगैर रहूँ कबतक .....

हमारे बीच जो शब-ऐ-फ़ुर्क़त के फासले हैं
वो अँधेरे हैं
जो हर लम्हा सिमट रहे हैं उस वस्ल की एक रात में
जिसमें चाँदनी की रिदा लिपट जायेगी हमारे तपते जिस्मों से
और तुम्हारे गेसुओं की खुशबुओं में हर एक ख़्वाब, हर एक चाह
सेहरा पे आकर रुके बादलों तले खिलखिलाते हुए बच्चों की मानिंद
हँस पड़ेंगे...

तन्हाइयों के सूखे पत्ते तुम्हारी आहटों से टूट जाएंगे

तुम जब आओगी अपने होटों पर उन सभी दिनों  के बही-खाते लेकर
जिनको नफ़े  नुक्सान का ख़याल इसकदर था के तुमसे मुझे मिलने न दिया
हर भरम टूट जाएंगे
और डर है मुझे मैं रो न पडूँ तुम्हारी खुली बाहों पर ज़माने के तानों से बने निशानों को देख कर
डर है मुझे कहीं तुम्हारी ख़ामोशी में तुमको टोकने वाली अपनी ज़ुबाँ को गर न मैं रोक पाया
तो क्या तुम्हें सुन सकूँगा...

मेरे क़रीब, मेरे पहलु में तुम आकर बैठ जाना और मुआफ़ कर देना मेरी सभी मज़बूरियों को

जब सितारे तुम्हें उफ़क़ से देखेंगे
अपनी बाहों में तुमको कस लूंगा और
किसी नज़्म में तुम्हें पिरो दूंगा
उन्ही तारों की तरह जो आजतक उस रूह को लिए जी रहे हैं जिसने  उन्हें लफ़्ज़ों में बयाँ किया था
जो अब नहीं है पर होने का अहसास कराता  है
जिसकी कलम रात के सियाह सफ़होँ पर कहीं कहीं काफी कुछ छिपाती हुई
काफ़ी कुछ बयाँ कर गयी ....
जो अब नहीं है पर फिर भी उन सितारों में यूँ
चमक रहा है जैसे मैं चमकता हूँ तुम्हारी काँच सी दो आँखों में
तुम्हारी मुस्कराहट पर
तुम्हारे भीगे हुए होटों पर


तुम्हारे नर्म होटों पर रख दूंगा
हर एक गर्म दिन की कहानी को
जो तुमसे दूर अकेले सफ़र में काटे हैं

तुम मुझे बचा लेना
मैं तुम्हे बचा लूंगा

इस अँधेरी शब-ऐ-फ़ुर्क़त को भी गुज़रने दो
उन सभी रातों की तरह जो इंतज़ार में गुज़री हैं
पिरो रहा है कोई इनको वस्ल की एक रात बनाने के लिए

फूल सब खार बन गए होंगे



फूल सब खार बन गए होंगे 
हर्फ़ बेज़ार बन गए होंगे 

चार दिन बज़्म में नहीं बैठा 
रिन्द फनकार बन गए होंगे

दिन में क्या देखूं मैं ज़माने को
लोग किरदार बन गए होंगे 

जा रहा है तो ये भी मुमकिन है 
और कुछ यार बन गए होंगे

आज भी खुल्द की दुवा करके



आज भी खुल्द की दुवा करके 
लौट आया रसम अदा करके

आदमी आदमी से मिलता है 
लफ्ज़ से दिल को क्यूँ जुदा करके 

ज़ीस्त ही मर्ज़ बन चला दिल 
फायदा क्या हो अब दवा करके 

आधियों में नहीं बुझी लौ तू 
देख ले हाथ से हवा करके 

जाने क्या जिद्द गले लगाने की 
क्या मिला दिल में आबला करके 

जिंदगी यूँ ही बीत जाती है 
रायगाँ ना करो गिला करके 

कारवाँ हो हो मगर फिर भी 
चलते जा खुद पे हौसला करके 


ख़ुदा माफ़ कर के जीते जी 
देखता हूँ उसे ख़ुदा करके 

जाने क्यूँ मेहरबाँ हुआ साकी 
मार डाला पिला पिला करके

घर में जबसे तंगी है मज़बूरी है


घर में जबसे तंगी है मज़बूरी है
रिश्तों में कुछ तल्ख़ी है कुछ दूरी है

हम चादर छोटी कर के कितना बचते
साँसों पर भी दो-आना दस्तूरी है

मैं शायर होकर के भी क्या क्या लिख दूँ
माँ की  सिसकी पर हर नज़्म अधूरी है

अबके तूफाँ में छप्पर ना बच पाया
किस मुंसिब की फ़तवों पे मंज़ूरी है ?

जिनसे बातें होतीं थीं वो कब रूठें
क्या जानूँ क्यूँ तनहा हूँ महजूरी है


बैठें हैं फ़ुरसत के सब दिन आने को
उनसे मिलने की तैयारी पूरी है



Friday, May 30, 2014

तेरे गेसुओं में कहीं खो गया हूँ

तेरे गेसुओं में कहीं खो गया हूँ
ज़माने से ही मैं जुदा हो गया हूँ

तेरा नाम सुनकर अभी जाग जाता
सदा के लिए जाँ मगर सो गया हूँ

नहीं आज दिल में कोई ज़ौक़-ए-वसलत
सनम जीतेजी मैं फना हो गया हूँ


उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...