Wednesday, July 23, 2014

मैं तुम्हारे बगैर रहूँ कबतक .....

हमारे बीच जो शब-ऐ-फ़ुर्क़त के फासले हैं
वो अँधेरे हैं
जो हर लम्हा सिमट रहे हैं उस वस्ल की एक रात में
जिसमें चाँदनी की रिदा लिपट जायेगी हमारे तपते जिस्मों से
और तुम्हारे गेसुओं की खुशबुओं में हर एक ख़्वाब, हर एक चाह
सेहरा पे आकर रुके बादलों तले खिलखिलाते हुए बच्चों की मानिंद
हँस पड़ेंगे...

तन्हाइयों के सूखे पत्ते तुम्हारी आहटों से टूट जाएंगे

तुम जब आओगी अपने होटों पर उन सभी दिनों  के बही-खाते लेकर
जिनको नफ़े  नुक्सान का ख़याल इसकदर था के तुमसे मुझे मिलने न दिया
हर भरम टूट जाएंगे
और डर है मुझे मैं रो न पडूँ तुम्हारी खुली बाहों पर ज़माने के तानों से बने निशानों को देख कर
डर है मुझे कहीं तुम्हारी ख़ामोशी में तुमको टोकने वाली अपनी ज़ुबाँ को गर न मैं रोक पाया
तो क्या तुम्हें सुन सकूँगा...

मेरे क़रीब, मेरे पहलु में तुम आकर बैठ जाना और मुआफ़ कर देना मेरी सभी मज़बूरियों को

जब सितारे तुम्हें उफ़क़ से देखेंगे
अपनी बाहों में तुमको कस लूंगा और
किसी नज़्म में तुम्हें पिरो दूंगा
उन्ही तारों की तरह जो आजतक उस रूह को लिए जी रहे हैं जिसने  उन्हें लफ़्ज़ों में बयाँ किया था
जो अब नहीं है पर होने का अहसास कराता  है
जिसकी कलम रात के सियाह सफ़होँ पर कहीं कहीं काफी कुछ छिपाती हुई
काफ़ी कुछ बयाँ कर गयी ....
जो अब नहीं है पर फिर भी उन सितारों में यूँ
चमक रहा है जैसे मैं चमकता हूँ तुम्हारी काँच सी दो आँखों में
तुम्हारी मुस्कराहट पर
तुम्हारे भीगे हुए होटों पर


तुम्हारे नर्म होटों पर रख दूंगा
हर एक गर्म दिन की कहानी को
जो तुमसे दूर अकेले सफ़र में काटे हैं

तुम मुझे बचा लेना
मैं तुम्हे बचा लूंगा

इस अँधेरी शब-ऐ-फ़ुर्क़त को भी गुज़रने दो
उन सभी रातों की तरह जो इंतज़ार में गुज़री हैं
पिरो रहा है कोई इनको वस्ल की एक रात बनाने के लिए

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...