Thursday, March 25, 2010

फिर सजा बाज़ार मौला आज तेरे शेहेर में

फिर सजा बाज़ार मौला आज तेरे शेहेर में
बिकता है खरीदार मौला आज तेरे शेहेर में

नीलाम है ईमान का घर
हर शख्स है बे आबुरु
वाइज़ भी गमखार मौला आज तेरे शेहेर में

मुल्क शहीदों का जो था
है आज मुलजिमो के हाथ में
शहादत गयी बेकार मौला आज तेरे शेहेर में

अब्र बरसा दे अब के
पानी से लहू मिटाता नहीं
हर हाथ में तलवार मौला आज तेरे शेहेर में

खूब रोया याद कर के
बीते दिनों के बात मैं
ईमान की है मज़ार मौला आज तेरे शेहेर में

अब नहीं कश्टी हमारी
चाह में साहिल के है
हैवान है खूंखार मौला आज तेरे शेहेर में

Tuesday, March 23, 2010

LIfe, so far

Four years of college life is now coming to an end. Here I am standing all alone, under a tall tree, in its shades and observing a kid in the park who is running after a puppy. All of a sudden now I realize that it has been long since I have chased puppies.
There was a time when I was a kid, running behind butterflies and observing blades of grasses for hours. I wanted to see a plant grow but then dad told me the plants grow only when I am in deep sleep, in day time the plants are afraid of me. I would feel so strong to know that I can connect with even a blade of grass. I knew for sure that there is one single thread that runs throughout the universe and everything interact with each other. I was so happy. Everything was meaning and full of wonder and beauty.
I cannot recall when exactly everything changed. I believe the things did not change overnight. The flood of thoughts and imagination was hindered by the bitter, cruel realities. The school and its education made me think differently and made me feel so weak. When I asked my geography teacher, ‘How do people at the South pole live, don’t they get crushed between the earth and the surface on which the earth rotates?’ I remember how she laughed and said the earth rotates in space. I didn’t like her. She broke my beliefs everyday and her mocking laughs brought bitterness to my innocent heart. Time kept passing and everything started becoming so obvious. I stopped questioning the teachers and eventually stopped thinking. Amidst all this, Mathematics could somehow keep me busy and at times fill me with wonder. I wanted to know Calculus when I was in forth standard. My dad was having a great collection of books on Mathematics. I wanted to grow up and wanted to read those books. I would flip the pages of S L Loney, Piskunov, Hall and Knights and request dad to teach me those things. He said it was too early. I was quick and started with Calculus in my ninth standard. I found it extraordinarily attracting and powerful. Time kept passing by and I came to college.
The rigid educational system made me detest the system and I started doing all sorts of things that could keep me busy. Finally, I reached a stage from where I started seeing everything worthless. The kid in me was dead by now. Nothing seemed wonderful and interesting anymore. I started walking, walking alone. I have always been a kind of person who would not bother about what others say about him, but at times words hurt. People around me found it very awkward. Somehow I kept telling myself that there was nothing wrong and I kept walking, walking alone.
Thoughts kept accumulating and I kept mum. I had friends but we never discussed what I kept thinking. I kept asking myself: ‘for how long?’ I never got any reply. I kept walking. The final year of college came with a surprise, the thoughts in my head made a kind of kaleidoscope and whenever I would close my eyes, I could see the thoughts making extraordinary formations. I didn’t know what to do. Now I felt no need to walk alone anymore. I could see things crystal clear. The only unanswered question now left with me is, “what knowledge is there inside the smallest exiting bodies in the universe? This knowledge has to be universally same and must have the power to bring itself to existence through particles or light.” I call this theory “The knowledge Energy Theory”. But with this unanswered question, I may have to live for the rest of my life. I told myself to relax and do something creative and constructive, so that my live does not becomes a living hell. I picked my pen and penned down numerous poems within no time. I can write whenever I want. I have learnt the art of writing poems even when I am asleep.
At the end of my college life I can summarize my life so far in the following words: ‘A blade of grass made the kid inside me wonder. His pursuit of knowledge drew me to Mathematics. Mathematics opened the window of imaginations. Imaginations met there end at college. College filled the heart with bitterness. Bitterness made me pursue knowledge again. Knowledge brought me to a dead end and here I am spend the rest of my days writing poems, read books and amusing myself.’

प्रांगन में था पेड़ बरगद का, मैंने देखा नहीं

नहीं जानती माँ उसकी
लिखता है वो कवितायें
बस उदास रहती है के
बेटा कुछ कहता नहीं ....
गम सुम बस बैठ जाता है
हर शाम मुंडेर पर
उँगलियों में कलम घुमाता
देखता रात के आँचल को
मन ही मन कुछ कहता और
हंस देता...फिर वही एक विचित्र सा मौन
नहीं पूछती वो कुछ भी लाल से
मन को खुद ही समझा लेती
ये उम्र ही ऐसी है उसकी
हो सकता है किसी लड़की के सपने होंगे जागते उसे
क्या पता चाँद में एक चेहरा ढूंढता होगा वो
या कुछ सोचता होगा भविष्य की
हो सकता है भागवद का कोई श्लोक गूंजता होगा उसके मन में ..
ऐसा तो नहीं किसी ने कह दिया कुछ मेरे भावुक लाल से
ऐसा तो नहीं कोई बात टीस उठा रही है उसके निर्मल मन में
या बस जिद्दी है क्रमों से दूर भाग रहा वो ............

Monday, March 22, 2010

दादी

दादी की कोठरी में रखी लकड़ी की आलमारी
अन्दर रखती है दादी उसमें
पूजा का सामन और एक डब्बे में
मिश्री बताशे और किशमिश .
दोपहर में सब सो जाते नींद मुझे आती नहीं
सोयी दादी तो उठानी भी थीक नहीं
एक डब्बा खीच लाता हूँ नन्हे हाथों से
और सामने रेख कर आलमारी के
खड़ा हो जाता हूँ उसपर
फिर खोलता हूँ पल्ला आलमारी का
मुट्ठी भरता हूँ किशमिश बताशों से
छोटी मुट्ठी मेरी, थोडा खता ज्यादा गिराता हूँ
कुछ भी शोर किया नहीं मैंने
जाने कब दाबी नींद से जाग गयी
अब मेरे पीछे खड़ी मुस्का रही है वो
कान्हा कह गोंद में उठा लिया मुझे...
दादी की गोंद में कितना ऊंचा हो जाता हूँ में
.

वो वाली कहानी सुना दो

बाबा वो वाली कहानी सुना दो
राज कुमारी जिसमें रजा से
मांग बैठती है चंदा को
जिसमें राजा के सारी सेना
निकल पड़ती है चाँद लाने
बाबा आगे कुछ कुछ भूल गया मैं
थोड़ा सा तुम याद दिला दो
कैसे राजा ने फिर बिटिया के
नाखून को चाँद बताया था
और कैसे आसमान से चाँद उँगलियों पर लाया था
बाबा ऐसा क्यूँ है बोलो
जो कहानिया बचपन में
मुझको खूब हंसाती थीं
आज सत्य के क्रूर प्रहार पर
मौन धरे रह जाती हैं ...

Sunday, March 21, 2010

निः शब्द मन

क्या कहें के दर्द कोई अब कहीं उठता नहीं
जाने ऐसा क्या हुआ के घाव मुझको भा गया.
समाज घर परिवार यहाँ से अब मुझे दिखता नहीं
आँखों के मेरे सामने ये कैसा अँधेरा छा गया.
मौत नहीं अभी आई मुझको इतना तो आभास मुझे
चोंच मारने भूखा परिंदा यहाँ तक फिर क्यूँ आ गया..
गला मेरा सूखता है विश्रांति की अब बस प्यास मुझे
भूख मिटाने के लिए मैं गम अपना सारा खा गया.
अब कोई मुझसे जो पूछे मेरा ऐसा हाल क्यूँ
क्या हुआ के इस चट्टान पर मैं अकेला आ गया
निर्वस्त्र हूँ क्यूँ और यहाँ पर खड़ा फैलाये बाल क्यूँ
अनायास किस बात पर फिर मुझको रोना आ गया.

हार

दुखता है मन हर हार पर
जाने क्यूँ एय दिल जीत की प्यास भी नहीं
क्या कहें कैसे कहें कौन समझेगा
हमको अपने भी समझे ही नहीं
चल चलें कहीं दूर यहाँ से
चलें उस रेत के सेहरांव पर
कहते हैं साहिल जिसे
चल बनायें वहां एक रेत का घर
कुछ नहीं तो याद अपना
बचपन ही आ जाएगा
तो क्या की उठती लहर के साथ
घर अपना खो जाए गा
चल लिखेंगे नाम अपना
हाथ से हम लहर पर
और हँसेंगे चट्टानों पे नंगे खड़े हो
जीवन के सफ़र पर
सीपियाँ चुन दिन बितायेगें एय दिल
रात वही अपनी कब्र खोद कर
सो जायेंगे
किसी खामोश लहर के आगोश में
सो जायेंगे
रात वही अपनी कब्र खोद कर
हम दोनों ही सो जायेंगे

धर्मं का भी आँगन कितना श्वेत है ?

तेरे मेरे इस देश में
वाराणसी नाम का एक गाँव है
वहां अस्सी घाट पर
एक अलग सा ठहराव है
गंगा का अद्भुत विस्तार उधर
इधर श्रद्धा का अनुपम बहाव है

यहाँ बैठ तू देख मानुज़
एक झलकी अपने ही संसार की
डुबकी लगाता भक्त एक
अंजुली जल से भरी नार की
इस पार बैठ सोच तनिक तू
कहानी क्या है उस पार की

निर्मल जल, मध्य धार लाश तैरती
सामने तेरे भक्त मंत्र बोलता
साथ उसके वो लाश बोलती -
"क्यूँ नहीं तू आँख खोलता
समर्पण तेरा किस अज्ञात में
आखिर कौन तेरे कर्म तोलता ?"

क्षितिज पर टिके उस लाल सूर्या से
अब एय भक्त पूछ जरा तू
साँसों का आखिर तेरी क्या मोल था
है आज जीवित या मरा तू
कहता है तू आस्था है ये तेरी उसमें
मुझको फिर दीखता है इतना क्यूँ डरा तू


दैवीय इस स्थान पर भी
पत्थर जल और बस रेत है
प्रश्नों से दूर भागती भीड़ चीखती
पूछने वाला एक भूत या प्रेत है
मुझपर अधर्म का आरोप सही तू ये बता
धर्मं का भी आँगन कितना श्वेत है ?

Saturday, March 20, 2010

शतरंज

अपलक देख रहा हूँ
शतरंज की बिसात पर बिछी बाज़ी को
जो वजीर बढ़ाती हूँ
घोडा मात खाता है
घोडा पीछे हटा दूँ जो,
तो पुरानी चार चालें निरर्थक
क्यूँ न प्यांदा बलि चढ़ा दूँ ,
फिर देखि जायेगी ..
पहले ही एक गलती पर हांथी गँवा चूका हूँ मैं ...

मुद्दत हुई मयकदे गए

मुद्दत हुई मयकदे गए, नहीं है फुर्सत आज कल
मयनोशी का वो दौर था, नहीं है आदत आज कल

कुछ बात के जी नहीं लगता ऐ दिल तेरे शेहेर में
हर शख्स से जाने क्यूँ हमको है नफरत आज कल

दरवाजे घर के खोल कर, आये हैं हम चौक पर
जाओ सब कुछ लूट लो, भाति नहीं दौलत आज कल

कोई मिले तो दे चले हम सब कुछ अपना सौंप कर
हाथों में लेकर घुमते हैं अपनी वसीयत आज कल

क्या कहें 'चक्रेश' के जी लगता नहीं अब बज़्म में
हिज्र की रा-ना- ई-यों में दिखाती है जन्नत आज कल

Friday, March 19, 2010

मुहब्बत की स्याही वाही कलम

जब उस रोज़ बैठा था मैं
अकेले किसी सोच में खोया
बाग़ में पेड़ों की छाँव में ...
याद है क्या तुम्हे वो दिन, जब तुम आई थी
हंसकर
और दे गयी थी मुझे एक तोहफा कलम का...
फिर बैठ गयी थी वहीं पहलू में मेरे
और जिद्द की थी एक नज़्म लिखने की
लिखी थी एक नज़्म उसी मुहब्बत की स्याही वाही कलम से मैंने
याद है क्या तुम्हे
कैसे नज़्म पढ़ते पढ़ते
मदहोश हो गयी
ऊपर दाल से ताकती एक कली कनेर की
और आ गिरी कागज़ के सीने पर
फिर तुमने रख ली थी वो कली
अपनी एक किताब के पन्नो में दबा कर
कैद कर लिया था तुमने उस लम्हे को,
खुसी से, सदा के लिए .
अब वक़्त बदल गया है
काफी कुछ नहीं रहा पहले जैसा ... जानता हूँ
कुछ था उस कलम में,
उसकी स्याही से निकली ...
हर नज़्म में खुशबू थी
कुछ बात थी ...
जीने का सहारा बन गया था वो तोहफा तेरा
आज वो कलम खो आया
फिसल गयी उँगलियों से मेरी, मैं पकड़ न सका उसे
जिंदगी फिर वीरानी सी लग रही है अब
दीवाना हूँ... जानता हूँ ..मगर फिर भी
मांगता हूँ तुमसे आज वही कलम उसी स्याही वाली फिर से
देखो शायद मुहब्बत की स्याही वाली बोलत में,
कुछ बूंदे स्याही की बची रह गयीं हो कहीं .....
जानता हूँ कोई वास्ता नहीं अब तुमको मुझसे
फिर भी
क्यूँ नहीं पुरानी अपने उस किताब के पन्ने पलट देखती हो
कुछ तो कहती होगी मुरझाई वो कली कनेर की

Wednesday, March 17, 2010

जनम दिवस (मेरा)

समझ की डोर में
गाँठ पर गाँठ पड़ती जाती है
उंगलियाँ सुलझाने में हैं असमर्थ.
हो सकता है नाखून छोटे हैं,
मेरी उँगलियों के अभी.
उलझते सुलझते आज अनायास आभास हुआ
कि
एक बरस बीत गया
और
द्वार आ खड़ा हुआ मेरे,
रवि के रथ पर सवार होकर,
एक और जनम दिवस (मेरा).

घर में बिखरा सामन,
सपनों के टुकड़ो से ढकी फर्श,
समय कि धुल से छिपी यादों की तस्वीरें,
भावना की अध्-जली काली लकड़ियाँ,
और बीचों बीच, डोर में उलझा बैठा मैं
ऊठुं कैसे पहुंचूं द्वार तक,
करूँ कैसे मेहमान का स्वागत ?
साल में एक ही बार तो आता है ये प्रिय मेरा
बस एक दिन हंस कर मेरे साथ बिताने के लिए
हर बार की तरह, कैसे हंसकर द्वार खोल दूँ घर का इसबार ?
हंस कर कैसे व्यक्त करूँ खुसी उसके आगमन पर ?

क्यूँ न जिद्द की झाडू उठा
साफ़ कर दूं घर को
क्यूँ न बाहर कर दूँ इन बेकार की चीजों को
क्या मोल है ऐसी उलझी हुई समझ की डोर का,
ये तुकडे भी तो याद दिलाते रहते हैं टूटे सपनों के बस,


या कह दूं आगंतुक से
ना आ इस बार द्वार नहीं खोलूँगा मैं
घर छोड़ कर या चला जाऊं मैं कहीं दूर टहलता

....

Tuesday, March 16, 2010

प्रतीक्षा

समझ की मथनी से
आत्म मंथन करते करते
जाने कब ऐसा हुआ
कि मस्तिष्क कि सतेह से भाप बन
शब्दकोश के सारे शब्द
एक एक करके छु हो गए |
मैं अकिंचन
आज आ बैठा कविता तेरी चौखट पर
सारी रात तेरी झोपड़ी के पट को
टक टकी बांधे देखता रहा
तू द्वार खोलती ही नहीं |
तुझ गरीब की झोपड़ी के टूटे छप्परों
से छन छन कर अन्दर जाती चाँदनी
से भाग भी न हैं मेरे
कि एक झलक भी तेरी पालूँ |
बहार पड़ी चारपाई बार बैठा
सारी रात
भावना कि लकड़ियों पर हाथ सेकता
ठिठुरता
कांपता मैं
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
पट के खुलने का |
शून्य मेरी आत्म का
कदाचित तू मुखरित कर दे
अभिव्यक्ति की सीमाओं के आगे जाकर
आत्म और बाह्य शरीर के बीच के व्योम को
भर दे |

ey कविता एक anurod बस इतना सा है
अपनी चौखट से khaali न लौटा मुझे
मुझको भी अन्दर आने का
पावन एक अवसर दे ...

Thursday, March 11, 2010

तिनका तिनका टुकड़ा टुकड़ा

तिनका तिनका टुकड़ा टुकड़ा चुन चुन के पैगाम लिखा
इक ख़त अपने दिल की बातों का हमने तेरे नाम लिखा

तुमको देखूं तो जाने छाती है क्या खामोशी
अब तक जो कुछ कह न पाया वो सब दिल को थाम लिखा

सच कहते है सब पीने वाले मय में कोई बात है
हमने भी आज मैखाने जाकर हाथों में ले जाम लिखा

रहता है तू दिल में मेरे है दिल के कितना करीब
एय बासिन्दे दिल की गलियों के प्यार का पहला सलाम लिखा

बेखुदी येही है शायद दीवानगी इसी का नाम
इक इक करके सब लिख गए हम अपना पता न नाम लिखा

कुछ ने कहा है चाँद

कुछ ने कहा है चाँद कुछ ने तुझे हूर कहा है
शायरों ने तेरे हुस्न पे कुछ न कुछ जुरूर कहा है

जिस जिस पर पड़ गयी कातिल तेरी नज़र
झुक झुक कर उसने तुझे बारहां हुजूर कहा है

एक हम ही हैं अकेले शायर सारे शेहेर में
जिसने तुझे एय साकी हंसकर मुग्रूर कहा है

कहते हैं अदा जिसे वो अपने शेरों में
आकर देख इधर हमने उसे बस गुरूर कहा है

उसके आगे एय साकी तेरा हुस्न कुछ नहीं
जिस शख्स को हमने अपनी आँखों का नूर कहा है

Wednesday, March 10, 2010

इक घडी हुआ करती थी

इक घडी हुआ करती थी (मेरी )
टिक टिक चलती रहती थी
कुछ न कहती कुछ न मांगती
बस समय दिखाया करती थी

इक दिन हंस कर के पूछ जाने किस कारण
क्यूँ चलती रहती हो तुम एय 'जान -ए -मन '
न्योछावर करती हो मुझपर आखिर क्यूँ
तुम अपना योवन, तन-मन-जीवन ?

बस इतना सुनना था की वो,यारों चहक गयी
सच कहता हूँ ,बिन पीये भरी दुपहरी बहक गयी
घूम घूम कर कांटे तीनों टूट गए यारों उसकी अंगड़ाई पर
जाने ऐसा क्या हुआ की दुनिया उसकी महक गयी

'एय प्राण प्रिये अपनाया तुमने
पूरी हुई जीवन की आस
पाषाण बन कर रह गयी थी मैं अहिल्या
अब पहुंची साजन के पास'

मैं भौचक्का रह गया हक्का बक्का
घड़ियाँ भी क्या बोलती हैं
हाल-ए -दिल यूँ खोलती हैं?

वो तुक रुक देख रही मुझे बस
ऐसे जैसे काम तीरों से घायल हुई वो
खो बैठी अपने आप पर वश

'देख प्यारी, प्राण दुलारी,
फुर्सत में करेंगे बातें ढेर सारी
समय बता दे
छूट न जाए मेरी लोरी'

पर कहाँ मानती जब ठान लेती हैं
घड़ियाँ भी तो आखिर स्त्री होतीं हैं
हार जाते हैं महारथी भी इनसे
जब ये नैनो में नीर भरकर रो देतीं हैं

अब हार गया मैं भी क्या करता
ये नहीं की मैं हूँ उससे डरता
चल दिए 'डेट' पर दोनों
इससे पहले की सदमे से उभरता

पकड़ मेरी कलाई पहुँच गयी बाज़ार में वो

कंगन झुमका पायल दिला दो
'मिसेस गुप्ता' की घड़ी सा चमकता 'दयाल' दिला दो
और फिर दुकानदार से मोल भाव करो तुम
झिक झिक करो दाम करा दो

अब थक हार कर घर लौटे जब
उचल जा बैठी टेबल पर तब
इक प्याली चाय पिला दो
इतना किया ये भी करो अब


.................................................
चक्रेश सिंह
16.2.2010
disclaimer: No offenses to women. This poem is just intended to make you laugh and nothing else...

खिलौना टूट गया

खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
खिलौना टूट गया
मैंने कुछ न कहा

माटी का पुतला था
टूट गया तो क्या ?
माटी का पुतला था
हाँथ से छूट गया तो क्या ?

टुकडे कब जुड़ते हैं बोलो
टुकड़ों पे कैसा रोना ?
टुकडे कब जुड़ते हैं बोलो
ये तो था इक दिन होना

कल फिर आयेगा खिलोने वाला
फिर लायेगे खिलोनों का भण्डार
कल फिर आएगा खिलोने वाला
फिर पूरा हो जायेगा मेरा संसार

खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
मैं चुप रहा



...............................
चक्रेश सिंह
८/२/२०१०

जब कभी

जब कभी शाम का सूरज टिका हो किनारे पर
लौट रहे हों परिंदे
ढल रहा हो दिन
और
आँखें दब दबा जाएँ तेरी
उठने लगे भीनी खुसबू भींगे गालों से

जब कभी क्षितिज तक उंगलिया दौड़ाने पर भी
न मिले अपना खोया सितारा
और नहीं लगता हो मन जब
किसी और तारे में

जब कभी चाँद उफक से ताकता हो
पूछता हो बेकरारी का सबब
और जब एहसास होता हो की
बस यूंही मन हुआ था
आज रोने का
और कोई बात न थी
इक बहनa था अपना सितारा खोने का
बस रो पड़े, के यूँही मन था आज रोने का

जब कभी धड़कन टोकने लगे
समय की सूइयों से होती हो चुभन
और यूँही जब मन उदास हो
प्यारा साथी न कोई पास हो

तब गीत मेरा वो
तुम गुन गुना लेना
और भूल jaana तुम सब कुछ
dheere se मुस्करा देना

==============================================

Chakresh

Monday, March 8, 2010

एक ग़ज़ल तेरे नाम कर गए

लम्हा लम्हा याद कर सुबो से शाम कर गए
लो आज फिर एक ग़ज़ल तेरे नाम कर गए

हुस्न देख लिया हमने परदे को खेंच कर
इस बेखुदी में जाने क्या क्या काम कर गए

खूब चला सिलसिला छुप छुप के मिलने का
चर्चा मुहब्बत का शेहेर में आम कर गए

अपनी कब थी परवाह, जिल्लत से कब था डर
लो साथ अपने तुझको भी बदनाम कर गए

जुदा हुआ तू मुझसे , चाँद में पा लिया तुझे
तुझसे जुदा तन्हा जीने का इत्तेजाम कर गए

ये अनुरोध कैसा है

जलता दिया मंदिर का
पीपल के सीने से लिपटी असंख डोरें
आस्था परिभाषित करती
भीड़ मानसरोवर की
एक अद्रिस्य में
एक सर्व्वापी में
एक परमात्मा में
एक ब्रह्म में

गीता पुराण उपनिषद् धर्मं ग्रंथों
की दीवारों का किला
एक ऊंचा लाल झंडा
जीत का प्रतीक
या कदाचित आस्था का
संजोये अपने अन्दर
एक मूक
एक प्रश्नहीन भक्ति में लीन
एक जगराता से थक हार कर सोयी भीड़ को

पूछता हूँ मैं एक ही प्रश्न बार बार
क्या सोच थी जीवन मरण के सोच के पीछे
क्यूँ हथेलियों पर भाग्य रेखाओं ने खींचे
जन्म का स्रोत जो था है जब अंत वहीं पर
क्या उद्देष्य सिद्दा हुआ रचईता संसार को रच कर ?
आज मेरे प्रश्नों पर का उत्तर ये क्रोध कैसा है
नास्तिकता का आरोप मुझपर है क्यूँ
प्रश्नों को बदलने का ये अनुरोध कैसा है ?

Sunday, March 7, 2010

और कुछ नहीं

क्यूँ बांधते हो मुझको, चाहत की डोर पर
इक गाँठ छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

बदनामों की कमी कहाँ, उल्फत की राहों में
एक नाम जोड़ जाऊंगा मैं और कुछ नहीं

नूर बना लिया क्यूँ मुझे मासूम निगाहों का
इक वादा तोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

फ़ना होगा तू, जुलूस होगा जनाजे पे
मुह मोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

मुसाफिर हूँ, रुकना रात तेरे शेहेर में
सुबह सबको छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

दंगे

सुना रात मस्जिद गिरा दी की एक मंदिर बनाना है
मासूमो की लाशों पर किसी को खुनी वोट पाना है

दंगे शेहेर में काटे जिन्दा जलाये गए लोग कई
या इल्लाही ! हैवानियत का ये कैसा जमाना है

थर्राता है बचपन अँधेरे कमरों में छिपा हुआ
कौन जाने आज किस नन्हे यार का घर जल जाना है

नंगी तलवारों का नंगा शोर, कट्टे बन्दूंके हर हाथ में
गरीबी बेरोजगारी की आग दिखाने का ये अच्छा बहाना है


राम तुम हार गए रावन से युद्ध में
आओ देखो आज हर अयोध्या रावनो का ठिकाना है

Saturday, March 6, 2010

लम्हों को जिया करो

ढलती हुई शाम का मज़ा चक्रेश लिया करो
लम्बी बहुत है जिंदगी लम्हों को जिया करो

पीते नहीं हो तुम ये जानता हूँ मैं
दोस्तों की खातिर यूँही जाम उठा लिया करो

अफ़सोस रह जाए दिल को ये ठीक तो नहीं
साकी से दिल की बात खुल कर किया करो

साहिल तक आती लहेरों को बस रेत नसीब है
कुछ खोने की भूल कर बेफिक्र बहा* करो

वो देखो हंसने पे तुम्हारे बहार आ गयी
लोगों की फ़िज़ूल बातों से मायूस न हुआ करो

Thursday, March 4, 2010

कोई आईना दिखाता ही नहीं

खुद को देखे अरसा हो गया
की अब कोई आईना दिखाता ही नहीं

थक गया हूँ, देखता आया अब तक औरों को
की इस शेहेर में कोई चेहरा भाता ही नहीं

सोचा था ये जिंदगी तेरे नाम कर दूंगा
मेरी गली पलट कर तू आता ही नहीं

अश्को का सैलाब बहा रखा है
के ये दिल अब कोई बात छुपाता ही नहीं

खुद अपना ही जनाजा सजाये बैठा हूँ
कोई आगे बढ़ कर हाथ लगता ही नहीं

कल नए फूल लगा दूंगा

शाम हुई घर लौट आया मैं
मेरी राह ताकते थक गए गुल गुल्दाम के
सूख कर बेजान हो चुके सारे...
मेरे प्यारे
फूल सारे
निकाल फेंकता हूँ पुराने फूलों को
कल नए फूल लगा दूंगा
कल नए फूल लगा दूंगा

Let there be some sun shine

‘I love my country’ is probably the second most common phrase for a youth of today to say (of course ‘I love you’ being the first). The painful aspect attached to both the phrases is that most of times the person who utters these seemingly simple words, does not even realises the idea behind love. Well, though this is what I feel. One may disagree with me.
Come with me on a tour, and let’s see what we find out. Think of a compartment of a train, where a heated discussion is going on. Topic? Any guesses? Well yes, politics! of course. What do we talk most of the time? I do not even need to bother myself writing all that, you know already. The point is let say, there are thousands of trains running at every moment of time across our vast, diverse nation and let say, there are thousands of such compartments where such heated discussions are going on. Who is the speaker? And who is the listener? Where does, such talks lead us to? And what exactly is the outcome? Well these are the questions that make me feel ten times whenever I decide to pick up my pen and write something about politics, crime, corruption and other hot topics. May be this is the reason why so many parent around our nation do not want their wards to join any other field other that engineering, medical, journalism or fashion designing or anything that is in no way remotely attached to the concept of serving the nation and its people without any self interest. Well some enthusiasts move forward and decide to join the Army, administrative services etc but there too after some years of experience when they find themselves in the midst of corrupt officials and peers, the idea of nation and its people starts losing its meaning and the vicious circle of an innocent child turning into a bright student, then to a handsome enthusiastic hardworking honest patriot and then finally turning into a passionless aimless tortured government servant continues. On one hand this metamorphosis takes place and on the other, the society keeps adapting itself with the changing scenarios.
Once I asked a stranger when he was about to wear his shoes, “sir, have you ever put on a shoe in the wrong foot, say, the left one in the right and the right one in the left”. He smiled at me and said, “What are you talking? I am not insane, one always has that much common sense” Well, I feel probably because of this wide spread common sense only any parent decides to make their son an engineer and daughter a doctor. You see common sense is too common these days. When these young boys and girls reach their college, they take no time to realise that the educational system is rigid and that there is a need for change. And by the time any change takes place they prefer to close themselves in their rooms with their lap tops and PCs and search for soul mates on Orkut and facebook and also keep themselves updated with Mr. Tharoor on twitter. These students are dying to say ‘I love you’ to the first friend request they get from an opposite sex. Obviously they are now fed up saying ‘I love my country’ at school assembly prayers, college has to be different after all.
Keeping the sarcastic remarks apart and coming back to the point where we started- the degradation of society, where are we headed? A 7-9 % GDP growth with India shining only at the drawing rooms of the industrialists and mafias. The ever rising food prices, unregulated oil prices and the hungry eyes of a farmer looking for their representatives who never turned back after winning the elections. India shinning with national political parties promoting anarchy, and the opposition busy talking about Ram temple and staging walkouts every now and then. India shinning with the youth busy playing mafia war on Facebook and hailing Tendulkar as God. India shinning with M F Hussain accepting Kuwait’s nationality. India shinning with farmers committing suicides.
If we try and look into the cause of such a misbalance in the society today, we can see that it’s not the politicians or a hand full of corrupt officers who are at the root of all this. It’s not a system that has flaws. It’s not that we would have been different if something else were there in our constitution. I personally feel, it’s the human nature that is intrinsically corrupt and greedy. Everyone seeks for freedom. One’s freedom is restricted only by the freedom of another’s. Sitting in a rail compartment if I wish to stretch my arms I will have to see if I do not touch the fellow passenger sitting beside me, he may have objections. With such a huge population, with so many passengers conflicts are but nature. Does that mean all the wide spread corruption, violence, and other such issues are justifiable? Of course not. If we are looking for a better society and we realise that the cause of the wide spread discord is nothing else that our intrinsic selfish and greedy nature, then the only way left is probably to except the facts. Let us say without any shame that service without self interest is not possible. Let us come forward and except that what we expect from the leaders and NGOs and reformers is too much. Above all let the youth log out themselves from the virtual world and come out of their rooms. Let there be some sun shine, let there be some rain.

Wednesday, March 3, 2010

जीवन के रंग रूप


सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

चाहने वालों के मेले
गुमनामी का विराना
कोशों तक फाली चुप्पी
खुद से ही बतियाना
रुन्धता गला
यूंही ही आदतन मुस्काना
दुहराना बार बार गीता का
ढूढना ईश्वर स्वरुप

सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

अनुमान आज से ही
चित्त को चिता की ताप का
कर्म-तुला पर
लेखा जोखा पुण्य-पाप का
ये काव्य है परिणाम
मन से उठते भाप का
आगई आज पृष्ठ पर
हृदय की भावना अनूप


सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

आज का अर्जुन


कुछ देर से ठहर गया हूँ
गया हूँ चलना भूल
जाने क्या सहता रहा है हृदय
चुभा कौन सा शूल

किस कुरुक्षेत्र का अर्जुन हूँ मैं
लेने हैं किनके प्राण
कौन सी गीता गूँज रही कानों मनी
सिद्ध करना है आखिर कौन सा संधान ?


जलता है मन धुंवा उठता हृदय में
पर पीड़ा समझे कौन ?
गहुँ किसके चरण आज मैं
केशव भी हैं मौन ?


चाह नहीं मुझको कुछ पा लूँ
या करूँ श्रेथता सिद्ध
अपनों के लहू चीथड़ो से ढक दूं धरा को
नोचे उनको गिद्ध


यदि गांडीव धरी धरा पर
क्यूँ उकसाते हो मुझको
व्यर्थ हुंकार भरते हो क्यूँ
क्यूँ जागते हो मुझको ?


नहीं जानते क्या तुम इतना भी
लहू पीते हैं ये तीर
नहीं रोकते रुकते हैं किसिके
उठ जाते हैं जब मुझसे वीर !


आज अगर मैं चुप शांत खड़ा हूँ
और धरा है मौन
नहीं समझ पाओगे तुम
समझा है अब तक कौन?


सृष्टि के नीयम सिद्धांता
एक शून्य जुड़ा है संग
विस्तार देख चुका हूँ उसका
रह गया हूँ निःशब्द औ' दंग


कुछ करूँ भी तो शून्य है सब
न करूँ भी तो शून
देख सब कुछ सोच रहा हूँ
दिन बिताओं कैसे आखें मून

क्या धेय जीवन का है
जब नहीं है कुछ उस पार ?
जब व्यर्थ है चल अचल औ'
नश्वर सब संसार


क्यूँ नहीं समझता है कोई
बात है गंभीर
कहाँ खोलूँ कुंठित मन को
हृदय दिखाओं चीर




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चक्रेश सिंह

आज का अर्जुन

कुछ देर से ठहर गया हूँ
गया हूँ चलना भूल
जाने क्या सहता रहा है हृदय
चुभा कौन सा शूल

किस कुरुक्षेत्र का अर्जुन हूँ मैं
लेने हैं किनके प्राण
कौन सी गीता गूँज रही कानों मनी
सिद्ध करना है आखिर कौन सा संधान ?


जलता है मन धुंवा उठता हृदय में
पर पीड़ा समझे कौन ?
गहुँ किसके चरण आज मैं
केशव भी हैं मौन ?


चाह नहीं मुझको कुछ पा लूँ
या करूँ श्रेथता सिद्ध
अपनों के लहू चीथड़ो से ढक दूं धरा को
नोचे उनको गिद्ध


यदि गांडीव धरी धरा पर
क्यूँ उकसाते हो मुझको
व्यर्थ हुंकार भरते हो क्यूँ
क्यूँ जागते हो मुझको ?


नहीं जानते क्या तुम इतना भी
लहू पीते हैं ये तीर
नहीं रोकते रुकते हैं किसिके
उठ जाते हैं जब मुझसे वीर !


आज अगर मैं चुप शांत खड़ा हूँ
और धरा है मौन
नहीं समझ पाओगे तुम
समझा है अब तक कौन?


सृष्टि के नीयम सिद्धांता
एक शून्य जुड़ा है संग
विस्तार देख चुका हूँ उसका
रह गया हूँ निःशब्द औ' दंग


कुछ करूँ भी तो शून्य है सब
न करूँ भी तो शून
देख सब कुछ सोच रहा हूँ
दिन बिताओं कैसे आखें मून

क्या धेय जीवन का है
जब नहीं है कुछ उस पार ?
जब व्यर्थ है चल अचल औ'
नश्वर सब संसार


क्यूँ नहीं समझता है कोई
बात है गंभीर
कहाँ खोलूँ कुंठित मन को
हृदय दिखाओं चीर




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चक्रेश सिंह

Tuesday, March 2, 2010

रंग अकेलेपन के


जब भी अकेला हो जाता हूँ
हूँ न जब हंस पाता
तब याद बहुत आती हो
तब याद बहुत आती हो -2

सपनो में जब जागी आँखों से
मैं दूर निकल जाता हूँ
चिंताओं की तोड़ जंजीरें जब
स्वतंर्त्र स्वयं को पाटा हूँ
तब याद बहुत आती हो -२

मधुबन में जूही कलियाँ
जब हैं पवन संग लहराती
डोर तोड़ जब पतंग कोई
नब है खो jaati
तब याद बहुत आती हो -२

भूली कोई धुन बन्सी की
याद मुझे जब आ जाती
यमुना तीरे गोपी जब कोई
मटकी भरने आती
तब याद बहुत आती हो -२

जब नीले आकाश पर
लाली शाम की छाती
साड़ी रात जब चाँद की
है चाँदनी जगती
तब याद बहुत आती हो -२

रिश्ते स्वार्थ के जब
तान तान तीर चलाते
पौरुष कवच बेद तीर जब
हृदय चीर हैं जाते
तब याद बहुत आती हो -२

जब ठोकर खा गिरता हूँ
और fir सम्हालता हूँ
घावों पर जब खुद ही
हांथों से मलहम मलता हूँ
तब याद बहुत आती हो -२
त्योहारों में दीपों रंगों के
जब होते हैं बेरंग अँधेरे
भीड़ से दूर जब एकांत मांगते
आत्मा-हृदय-तन -मन मेरे
तब याद बहुत आती हो -२

विना की बेसुरी तान पे
राग जब अर्थ खो जाते
जीवन के सपने सागर जब
व्यर्थ अधूरे रह जाते
तब याद बहुत आती हो
हाँ, तब याद बहुत आती हो
तब याद बहुत आती हो.....

Monday, March 1, 2010

ये बालक

ये बालक

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जवानी की देहलीज पर खड़ा
समय के एक धक्के की प्रतीक्षा में
ये बालक

समझ कुछ दूर साथ चली पर
थक रही है अब लड़खड़ा रही है
नशे में धुत एक शराबी सी .
जलती आँखों से नींदे गायब
थके शरीर में सोने की इक्षा का अभाव
कुछ करने न करने में अंतर नहीं कर पाता
समय की छोटी सी खिड़की से
एक टुकड़ा आसमान यथार्थ का देख कर लौटा
ये बालक

जीवन के द्वंदों से जूझता
हांफता काँपता डरता गिरता सम्हलता
आगे बढता
ये बालक

डरता हूँ मैं
कहीं जो ये बोझ न उठा पाया
कहीं जो ये औरों की तरह खुद को न बदल पाया
कहीं कुछ बचपना शेष रह गया,
समय की मार से खुद को बचा कर यदि
कैसे फिर ये चल पायेगा सत्य की नग्न तलवार पर ?
सपनों का आकाश
तारों से सजी रात
और इसपर चमकता चाँद
जो इक इक कर के टूटने लगे
इस आकाश के तारे
जो घुलने लगे चाँद
सत्य के उजाले में
और जो खो jaaye ये सपने सारे
क्या वो रह पायेगा जो आज है
ये बालक ?
क्या ये एक क्षति नहीं होगी
क्या ये एक हत्या नहीं होगी
जो दम तोड़ दे
ये बालक ?
ये कैसा सत्य की जिसमे
कोई बालक नहीं
ये कैसा बड़ो का समाज
की जिसमे भावनाओं पर बाँध है
ये कैसी रात
की जिसमे सबका एक ही चाँद है ?

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...