Friday, March 19, 2010

मुहब्बत की स्याही वाही कलम

जब उस रोज़ बैठा था मैं
अकेले किसी सोच में खोया
बाग़ में पेड़ों की छाँव में ...
याद है क्या तुम्हे वो दिन, जब तुम आई थी
हंसकर
और दे गयी थी मुझे एक तोहफा कलम का...
फिर बैठ गयी थी वहीं पहलू में मेरे
और जिद्द की थी एक नज़्म लिखने की
लिखी थी एक नज़्म उसी मुहब्बत की स्याही वाही कलम से मैंने
याद है क्या तुम्हे
कैसे नज़्म पढ़ते पढ़ते
मदहोश हो गयी
ऊपर दाल से ताकती एक कली कनेर की
और आ गिरी कागज़ के सीने पर
फिर तुमने रख ली थी वो कली
अपनी एक किताब के पन्नो में दबा कर
कैद कर लिया था तुमने उस लम्हे को,
खुसी से, सदा के लिए .
अब वक़्त बदल गया है
काफी कुछ नहीं रहा पहले जैसा ... जानता हूँ
कुछ था उस कलम में,
उसकी स्याही से निकली ...
हर नज़्म में खुशबू थी
कुछ बात थी ...
जीने का सहारा बन गया था वो तोहफा तेरा
आज वो कलम खो आया
फिसल गयी उँगलियों से मेरी, मैं पकड़ न सका उसे
जिंदगी फिर वीरानी सी लग रही है अब
दीवाना हूँ... जानता हूँ ..मगर फिर भी
मांगता हूँ तुमसे आज वही कलम उसी स्याही वाली फिर से
देखो शायद मुहब्बत की स्याही वाली बोलत में,
कुछ बूंदे स्याही की बची रह गयीं हो कहीं .....
जानता हूँ कोई वास्ता नहीं अब तुमको मुझसे
फिर भी
क्यूँ नहीं पुरानी अपने उस किताब के पन्ने पलट देखती हो
कुछ तो कहती होगी मुरझाई वो कली कनेर की

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