Tuesday, March 23, 2010

प्रांगन में था पेड़ बरगद का, मैंने देखा नहीं

नहीं जानती माँ उसकी
लिखता है वो कवितायें
बस उदास रहती है के
बेटा कुछ कहता नहीं ....
गम सुम बस बैठ जाता है
हर शाम मुंडेर पर
उँगलियों में कलम घुमाता
देखता रात के आँचल को
मन ही मन कुछ कहता और
हंस देता...फिर वही एक विचित्र सा मौन
नहीं पूछती वो कुछ भी लाल से
मन को खुद ही समझा लेती
ये उम्र ही ऐसी है उसकी
हो सकता है किसी लड़की के सपने होंगे जागते उसे
क्या पता चाँद में एक चेहरा ढूंढता होगा वो
या कुछ सोचता होगा भविष्य की
हो सकता है भागवद का कोई श्लोक गूंजता होगा उसके मन में ..
ऐसा तो नहीं किसी ने कह दिया कुछ मेरे भावुक लाल से
ऐसा तो नहीं कोई बात टीस उठा रही है उसके निर्मल मन में
या बस जिद्दी है क्रमों से दूर भाग रहा वो ............

2 comments:

अरुण मिश्र said...

माँ की चिन्ताएँ विचार
बनकर आकाश मेँ
मँडराती रहती हैँ....

अच्छी रचना

chakresh singh said...

dhanyavaad sir

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...