Wednesday, December 28, 2011

निष्कंटक पथ

निष्कंटक पथ, पुष्प वाटिका ,
ना है ना थी चाह कभी ,
योग का जीवन, तपता तन मन ,
कभी भी रुकती राह नही

अश्रू संचित करते दो नयन ,
नित दिन ताका करते हैं ,
ओस में घुली शीतल किरणों से,
नित दिन माँगा करते,
एक नया दिन उज्वल हिम सा,
जिसमे हो निशा की श्याह नहीं

Tuesday, November 29, 2011

Sketch - 001


A loner, a mystic or a blissful saint, I can't say for sure, but that's what my heart looks like.








-Medium: Charcoal-

Sunday, November 27, 2011

चुभती हैं मुझे शहर-ऐ-समझदार की बातें

चुभती हैं मुझे शहर-ऐ-समझदार की बातें
दिल ऊब चुका सुन कर बेकार की बातें

कहते हैं के काफी थी मेरे हिस्से की हँसी
अब वक़्त है के समझूं  is संसार बातें 

मुझसे जुदा खड़े हैं मुझे सब जानने वाले 
इनको न रास आयीं मेरी प्यार की बातें  

मेरे ख्वाब में परी थी, बाहों में फैले बादल
कितनी अजीब हैं पर, ये कारोबार की बातें

टुकड़ों में जी रहा हूँ, क्यूँ ज़िन्दगी तुझे
कब हो गयीं ज़रूरी, कुछ दो-चार की बातें

Friday, November 25, 2011

नाम ३

तखल्लुस ढूँढने निकला था

फिर शाम, साहिल की गीली रेतों पर

और फिर वही बेनामी लेकर

लौट आया घर को मैं...

नाम २

सोच रहा था के होने वाले बेटे का नाम 'जुनैद सिंह' रखूंगा...

फिर याद आया के मैं तो हिन्दू हूँ ...

नाम १

जाने क्या शिकायत है लहरों को

जाने क्या बेचैनी है

नाम है मेरा मैं थोड़ी हूँ

फिर भी इतनी नाराजी!!!

सौ बार लिखा गीली रेतों पर

सौ बार मिटा कर चली गयीं

शायद इनको साहिलों पर

शोर शराबा पसंद नहीं

मुझको ये सागर कुछ ऐसा,

अनजान दिखाई पड़ता है

जैसे के हो कर भी न हो

होने न होने में

कुछ होने न होने का चक्कर..

मैं न जानूं क्या है पर

अदाज जुदा सा है इसका

सोचता हूँ शायर ही कह दूं

कुछ नाम तो देना होगा आखिर

वर्ना होना न होना सा होगा

कम से कम मेरी दुनिया में..

इसकी शिद्दत में ये लहरें

अपने होने को भूल चुकीं

और बेतुकी बातों से आगे

चलकर जीती जाती हैं

क्यूँ न फिर नाम ये मेरा

बेमतलब बेजान लगे

क्यूँ न मेरे होने को ये

दरकिनार कर के बढ़ आयें ...

और इस सब के होते होते

दूर थका सूरज ठंडा पढ़ सा जाता है

शाम गुलाबी साड़ी में लिपटी

मफलूस आईने के आगे बैठी

नयी दुल्हन सी दिखती है

बादल, हवा, रंगों को लेकर

सजती पल भर के मिलने को मुझसे

पति समंदर की खामोशी पर शर्मिंदा

कुछ मेहमान नवाजी करने को

कुछ परिंदे शाख ढूँढते

फिरते देखा करता हूँ

हर शाम अंधेरों से निकल कर

मैं दिन को देखा करता हूँ

अपने होने न होने पर

लहरों से बातें करता हूँ

और शाम को अपने आगे बिठाकर

लिखता हूँ

सुनाता हूँ

हँसता हूँ

हंसाता हूँ

बस ऐसे ही जीता आया हूँ

बस ऐसे ही जीता जाता हूँ

Tuesday, November 22, 2011

साहिल मेरी जुबाँ

साहिल मेरी जुबाँ, दरिया है मेरा दिल

दाइम सुबहो-से-शाम, बहता है मेरा दिल




हर्फ़-ऐ-गुहर अक्सर आते हैं लबों तक
यादों की सीपियाँ, रखता है मेरा दिल


मुझसे न पूछिए, सफीनों का डूबना

नाखुदा न जान पाए के क्या है मेरा दिल

Monday, November 14, 2011

उसे आना होगा

रोज जिसे देखकर जीते आये

वो आज नहीं आया तो दम घुट सा गया

वक्त की चाल बेतुकी सी लगी

हर आह में धुवाँ सुलगने सा लगा

हर सू मेरी आँखें प्यासी ही रहीं

कोई आवाज़ दिल-ओ-जाँ तक उतर न सकी

और नब्ज़ डूबने सी लगी

वो आता होगा..

उसे आना होगा...

वो मेरी जिंदगी का मालिक है

मेरे दिल तक उतरता दरिया-ऐ-हयात

मेरे होने का मतलब उससे

मेरी साँसों का वो ही रखवाला

जुबाँ झूठ का सहारा लेकर

मुझे मुझमें कभी समाँ देगी

मगर मैं आज भी समझता हूँ

उस पर्दा-नशीं से आगे

मेरा कोई वजूद नहीं

असल बात तो बस इतनी सी

के उसकी दो निगाहों में

जल रहे नर्म चरागों का

मैं एक तड़पता दीवाना






फ़क़त उस लौ से मेरा मतलब है

फ़क़त इक बार ही मैं जीने आया

उन नर्म सुर्ख होठों पर

धुवाँ- धुवाँ होने के लिए

अपना वजूद खोने के लिए

वो आजा नहीं आया और... दम, घुट सा गया

उसे आना होगा

मेरी साँसों की रवानी के लिए

मेरी ग़ज़लों की जवानी के लिए

उसे आना होगा

इस तपते रेत के समंदर में

दरिया बनकर

उसे आना होगा

मेरी हर आह की खातिर

मेरे जिस्म में चुभते तन्हाई के काँटों की कसक

भी भुलंद हो के कह रही है यही

उसे आना होगा

उसे आना होगा

Wednesday, November 9, 2011

वर्त्तमान के आईने में

वर्त्तमान के आईने में भूत, भविष्य ही देखता है
संवरता है
सजता है
किसी अनजान से मिलने की उत्सुकता लिए
प्रतीक्षा करता है
और समय आने पर
नए नए रूपों में
नए नए चेहरों से मिलता है
पर हर यात्रा के थके राहगीर ही की तरेह
हर नया राही भी अपने हिस्से के वर्त्तमान को झटक कर दूर करने की भूल कर बैठता है
किसी अनजान की चाह में  चलते चले जाता है 
वर्तमान के आईने में
अक्सर चीजें उलटी-पुलटी सी दिखने लगती हैं
थके चहरे अक्सर अपनी सूरत से नफरत कर बैठते हैं
ये भूल ही है शायद
हास्यास्पद भी
और इसीलिए शायद एक विडम्बना भी
झूठ सच के दोगले चेहरे वाली समझ
कई बार एक दोराहे पर लाकर खड़ा कर जाती है मुझको
और सारा दिन हंसने के बाद
रात बैठ कर रोता हूँ
कब जगता हूँ
कब सोता हूँ
गीता के श्लोकों में उलझा,
उलझा हुआ सा होता हूँ
वर्त्तमान के आईने में
एक बिम्भ सा ... एक दूर जाकर बन रहे बिम्भ सा
कुछ देख रहा हूँ
वर्तमान के आईने में आगे देखता हुआ मैं, भूत ही देख रहा हूँ मैं शायद

Tuesday, November 1, 2011

भूल गए और ...

शाम ढली, आप आए, मुस्कराए और
हाथ मिले, दोस्त बने, गीत गाये और
धूप खिली, राह मिली, रात कटी और
पत्ते हिले, साँस आई, धुंध घटी और
खूब हँसे, नाँच उठे, भूल गए और
आसमाँ में, बादलों में, झूल गए और
प्यास नही, आस नही, चाह नही और
क्लेश नही, शोक नही, आह नही और
नन्हे कदम, नाँच उठे, धूल उठी और
भीनी भीनी, खुशबू में सब भूल गए और ...

Wednesday, October 26, 2011

बात नज़रों की जुबानी होगी

=.== . /.=.==
बात नज़रों की/ जुबानी होगी,
आपतक कब ये कहानी होगी

जो खुदा आज तलक रूठा है
कोई देवी ही/// मनानी होगी

आरज़ू क्या है न जानूँ मैं भी
दिल तुझी को बतानी होगी

छू गया आप का तस्सवुर जो
अब हँसी भी तो छुपानी होगी,

हाय!!! 'चक्रेश' ये कलम तेरी
जाने किस रोज़ रूमानी होगी

Tuesday, October 25, 2011

ऐसी कोई शाम नहीं

====/ =./ .=
ऐसी कोई शाम नहीं
जिसपर तेरा नाम नहीं

जाने क्यूँ मदहोश रहूँ
हाथों में तो जाम नहीं

नामाबर तो आते रहें
आते हैं पैगाम नहीं

शाखों को ऐसा झटका
पत्तों को आराम नहीं

चुभता होतो क्यूँ न कहे
ऐ दिल दिल को थाम नहीं

बेमतलब 'चक्रेश' यहाँ
उनको कर बदनाम नहीं

Monday, October 24, 2011

ये कैसा पहिया है जीवन

ये कैसा पहिया है जीवन
जिसको हम अपना कहते हो
वो पास में रहकर भी हमसे
कितना अनजाना होता है

जब बात पुरानी याद आये
और दिल को अपने छू जाए
तो दीवारों पर रखकर के
सर अपना दिल कितना रोता है

हम कौन के सफ़र राही हैं
है कौन सी मंजिल अपनी आखिर
हर राहगुजर पर बैठा पाया
एक नया समझौता है

कोई गैर अगर अपना है यहाँ
तो खैर सफ़र का क्या कहना
हर शख्स मिला अपने जैसा
मेरे सा भार ही ढोता है

दिल की तन्हाई इस कदर क्यूँ है

दिल की तन्हाई इस कदर क्यूँ है
मुझसे बेगाना आज घर क्यूँ है ?

याद आता नही मुझे कुछ भी
जाने भीगी सी ये नज़र क्यूँ है

लौट जाना नसीब है इसका
हो रही बावली लहर क्यूँ है

आसमाँ पूछता सितारों से
उनसे महरूम दोपहर क्यूँ है

Gandhi – A trump card for India


To India,
The way the world has been and continues to be, it is now very well accepted that History repeats itself. “All the world's a stage, And all the men and women merely players: They have their exits and their entrances” is what Shakespeare said quiet rightly. We have been acting on the stage under the light of the same Sun under which Mahabharata was fought, under the light of which Plassey and Buxar happened. We tend to forget the lessons soon and plunge into the same situations that were there at some point in the past. Nature gave us a volatile memory, and there lies the seed from which the sense of humor of the nature blooms. The current affairs in the Nation and abroad made me trifled and annoyed to foresee the chaos that is inevitable on the soil of my country. From theism to atheism, from Vedanta to antagonism, from physical to meta physical I forced my conscience to travel a long and painful tavern of conflicting ideologies, in my bid to understand my purpose of my life on the individual levels and the essence in human lives and society on the social levels. There is a lot left to be read and learnt on my behalf as of today, but there are few things that I have sensed by now – the answer about the essence of life is not much beyond the question itself, ‘why to live?’ The very question is complete in explaining the nature of life. No other animal other than man probably contemplates over the essence of its life. Man is virtuous animal and he will constantly seek peace and meaning in life. But as I said earlier, the nature’s sense of humor is such that it keeps playing with men and keeps setting up stages where chaos and tragedies repeat themselves.
The present day India, is a place where nature seems to be putting in lots of efforts for setting up a classic stage for a historic tragedy to be able to repeat itself. The way the sentiments of people took Anna Hazare’s movement from the demand of Lokpal bill to “India against corruption” and is still forging ahead questioning the Indian constitutional structures, with Mr. Arvind Kejriwal declaring Anna above parliament are just the waves of a future shock awaiting us. The recent news that how a medical student turned jihadist and master minded the 7th September, Delhi High court bomb blast, indicates the forces working against the national harmony. The media has left no stone unturned in a bid of getting 24x7 viewership for better TRP, by many a times, over disdaining the image of the political leaders. I pity our senior political leaders, who are time and again confronted by the media questioning their legitimacy. The present generation seems to have no faith in the constitutional bodies. The pseudo intellectuals at my college for instance, would sit ideally throughout the day, doing nothing and blaming the governmental policies for every other thing. Healthy opposition of the government is what I great democracy must move ahead with, but the lazy crowd of our nation who are putting very few efforts in improving their own characters are busy criticizing the leaders and voting keeping in mind the cast, creed and ethnicity of the candidates during elections. One might wonder how long a civilization can sleep before being jolted by fatal blows of time. The fact that there are corrupt politicians and there needs to be a mechanism to bring the powerful and influential on the balance of fair justice is very well accepted by any member of the civil society but if a change, how so ever small, comes at the cost of disfiguring the constitutional structure, then it will be detrimental to the freedom of the nation in longer run. With our Honorable prime minister asking to revise the RTI act, we can sense the severity of the threat a compromise with the constitutional structure might cause to the nation.
The country is facing many menaces today. The young generation of the country is looking for employment, the farmers seeking subsidies, different sects, tribes etc seeking equality, Roa and supporters asking for a new state - Telangana, Irom Sharmila seeking removal of AFSPA in Manipur, Maoists looking to topple the democracy, the middle class seeking control on the inflation, the global slowdown threatening the growth at home, neighboring countries ready to dismantle the peace of the region, the poor looking for helping hands, the government fighting the global deficit and many more. The public in general is not content and all the blame is pointed towards the government. If we see the actions of our government post 1991, we will see that the transition of our country from a slow moving Nehruvian socialism to fast growing economy of Dr. Manmohan’s neo-liberalism has brought a lot of reviving air, much needed in to our nation (with its ever increasing population and thus the basic needs). China could grow up to its full strength only when, the whole nation united in its effort for fighting the poverty and sensing the humiliation their country faced for a century and a half at the hands of imperial forces, under the leadership of Mao Zedong. India on the other had has been ever complaining and never realizing what it keeps at stake when it questions the liability of its own selected government. There is surely a void in the political arena of leadership after the departure of our fore fathers. Anna has come up as a hope for the people, but I fear the direction our future might turn into if Anna fail to handle the momentum which the nation has potential of generating.
Like the game of cards, every nation sets its trump card at the time of its realization. Our nation has set Gandhi as its trump card and is the sole hope, left in me, that consoles me that the future of my nation won’t see the bloodbaths the middle-east has seen and continues to. A revolt from one set or a groups of forces might outrage our nation in future, but we can always come up with our humane face and face the tragedies about to fall on us with the trump card of Gandhi in our hands instead of swords. Gandhi is a powerful concept. Anne Frank, who wrote a dairy while she was hiding in a confinement with her Jew family in Germany, at one point puts her dying hope upon a ‘thin man from India called Gandhi’ hoping that he might have brought an end to the atrocities of Hitler. Such was the affect and the charm of our beloved Baapu. In another instance I would like to quote what Mohsen Makhmalbaf(an Iranian film director, writer, editor, and producer) said about Mosavi (an Iranian reformist politician, artist and architect who served as the seventy-ninth and last Prime Minister of Iran from 1981 to 1989.) "Previously, he was revolutionary, because everyone inside the system was a revolutionary. But now he's a reformer. Now he knows Gandhi – before he knew only Che Guevara. If we gain power through aggression we would have to keep it through aggression. That is why we're having a green revolution, defined by peace and democracy."
India is safe and shall never see the blood bath politics like Libya, Tunisia, Iran, Iraq, Palestine, Israel etc. till the time the lessons of the “thin man” are alive with the people. But I will like to reiterate the sense of humor of the nature and under the light of the present day intolerant, biased and pseudo intellectual society (mainly the youth) India is quite vulnerable to disruption of the general peace that prevails in this part of the world.
I hope we do not forget our trump card and use it wisely instead of rising up to agitations as there are many forces that might come up with seemingly judicious agitations but very grave and consequential but hidden ideologies. We must not forget the lesson from the revolutions that took place in not very far off countries to which the general public rose to support expecting peace in future but all they got was deceit and even more autocratic rulers leading to graver plight. We must not be agitated by the news every now and then, rather we must work hard at our own levels resting our belief in the constitutional bodies atleast, if not in the leaders for the time being. Ours’ is a great country and we are a peace loving population, our harmony hurts many and we must be vigilant to their deceitful acts. The constitutional framework of the country is fair enough and flexible enough to eliminate any threat from the society but for it to function properly the faith of the people in it is a necessary requirement.

With love,
Chakresh

Wednesday, October 19, 2011

आप करके हौसला

=.==/=.==/=.==/=.=
आप करके हौसला इक बार आगे तो बढें
जिंदगी इंसान की है डर से इतना क्यूँ डरें

जब जवानी मांगती है बाजुओं में आसमाँ
तो हकीमों की दुकानों में गुलामी क्यूँ करें

आज सीने को जलाती हो अगर हर आह तो
आस कल पर छोड़कर बेनाम ऐसे क्यूँ जियें

धडकनों में जो उबलता हो महाभारत कहीं
तो प्रतिज्ञा करके अर्जुन सी यहाँ आकर लड़ें

वक़्त अपनी मौत का फ़र्मान लेकर आएगा
जब हक़ीकत जानते हैं जीतेजी तब क्यूँ मरें

कुछ असर हो या न हो चक्रेश तेरी बात का
तू चला चल इस शहर में हम गुजारा क्यूँ करें

Sunday, October 16, 2011

फिर से दरिया...




=.=/ .== /.==/===
फिर से दरिया, यहाँ क्यूँ आया है?
छाई शाम है या, ग़मों का साया है?


खुल के लूटा था, जिन हवाओं ने
उनसे पूछो, ज़रा क्या पाया है?

कौन कातिल था, मेरे ख़्वाबों का
क्यूँ फरिश्तों ने, सर झुकाया है?

मैं हंसी मांगता था जिनके लिए
उनको हर साँस, क्यूँ रुलाया है?

सबके हाथों में, क्यूँ यहाँ खंजर
आखिर किसने, इन्हें बनाया है?

Wednesday, October 12, 2011

Shifting Pain

Lofty dreams and heavy heart

all their laughter kept apart

women 'n men are chasing dreams

some like me are yet to start...



what I see are prison walls

master of puppets n walking dolls

war rooms, meeting rooms, IT hubs

priceless vases in empty halls..



caught in the darkness I fail to see

vision of a man, erect and free

centuries passed ‘n nothing changed

with me still wondering: 'to be or not to be'?

Thursday, October 6, 2011

मेरा सपनों सा जीवन





सुबह-सुबह सोंधी सी खुशबू
दादी के पूजा के घर से
मीठी-मीठी मिश्री जिव्हा पे
हाय! लिए वो मेरा बचपन
ढुलक-ढुलक कर गिरता पड़ता
आँखें मलता बाहर जाता
बाबा की खटिया पे बैठा
बड़ों सा माँ को आवाज़ लगता
'भूखा हूँ कुछ दो खाने को'
घर की बहु मेरी चाची तब
आँचल को सर पर रख कर के
हस्ती हुई द्वार तक आतीं
मुझे बंसवार में रहने वाले
भूतों के किस्से सुनाती
फिर भी जब मैं तकिन न डरता
मेरी माँ तब अन्दर से
डांट भरी आवाज़ लगाती
'पी ले बेटा दूध नहीं तो
मैं कान पकड़ पिलाऊंगी
फिर रोता हुवा न जाना
पापा के चुगली करने को'
मैं झट से एक घूँट में
सारा दूध फिर पी जाता
सफ़ेद मूछ माँ को दिखलाने
रसोईं घर में अन्दर जाता
'राजा बेटा' कहके माँ फिर
अपने कामों में लग जाती
हस्ता-गाता चंचल सा वो
हाय! मेरा सपनों सा जीवन

Tuesday, October 4, 2011

तुमसे फुर्सत में बात कर लेंगे

तुमसे फुर्सत में बात कर लेंगे
अभी जिंदा हैं तो सो लेने दो
अभी से चाँद को क्यूँ तकते हो
ज़रा शाम भी तो हो लेने दो

Monday, October 3, 2011

अफसुर्दा दिलों को नवा क्या है

अफसुर्दा दिलों को नवा क्या है ?
ज़हर बदलो के दवा क्या है ?

सुवैदा दामन मेरा मगर वाइज़
हुकूमत-ऐ-खुदा को हुआ क्या है ?

जो मैं आखिरी नींद प्यासी सोऊँ
तो उम्र बयाबाँ के सिवा क्या है ?

तमाम शहर से रस्म-ओ-राह नहीं
इक वो रूठें तो गिला क्या है ?

चंद लोगों को जो था अपना माना
सिवाए चोट के हमको मिला क्या है ?

Saturday, October 1, 2011

किताब-ऐ-शौख में

किताब-ऐ-शौख में चोट खाना लिखा है
के तंग गलियों से आना-जाना लिखा है



मत पूछिये क्यूँ दैर-ओ-हरम हर सू याँ हैं
हमने अपने हिस्से में सर झुकाना लिखा है

Wednesday, September 28, 2011

कसाई घर - मेरा दिल


मेरी निगाहों की कैद से
इक ख्वाब जान छुड़ा के भागा है...
जाने कब जेहन मेरा मुर्गी खाना बना
जाने कब तकदीर ने खंजर थाम लिया

Monday, September 26, 2011

न कहीं तुम्हे कभी भी चक्रेश ही मिलेगा

ये नमी ही क्या कुछ कम थी
जो रुलाया मुझको ऐसे
इक हंसी मेरे लबों की
क्यूँ तुमको न रास आई .

मैं मुन्तजिर उस शब् का
जो ऐसा मुझे सुलाए
के कातिलों तुम्हे फिर
ता -उम्र नींद ना आये

कभी खार बन के आये
कभी ज़हर ज़िन्दगी का
कहूँ कैसे तुमको अपना
तुम मुझे न जान पाए


इक झूठ मुझको देखर
मेरे हौसले बढाये
फिर हाथ काट करके
मुझे रोकने चले हो

मैं ही बना निशाना
तुम सबके बदगुमाँ का
मैं कबसे सोचता था
मेरा क़त्ल कैसे होगा

न कभी इधर फिर आना
लेकर के चाक दामन
मैं नजर फेर लूँगा
अभी से तुम्हे बता दूँ

न कभी तुमको कोई
अपना कभी कहेगा
न कहीं तुम्हे कभी भी
चक्रेश ही मिलेगा

Saturday, September 24, 2011

अधूरापन

तन्हा-तन्हा इस मेले में कब तक यूँही चलना होगा
चल अब चलता हूँ मैं सूरज तुझको भी तो ढलना होगा

Friday, September 23, 2011

तो क्या करिए

कितने ही ख्वाब अधूरे देखे
कितने ही वादे टूट गए
जब खुद से खुद को शिकायत हो
तो झूठी बातें क्या करिए

पुर जोर चली पुरवाई जब
हम तन्हा तन्हा जागे
जब दीवारों से बातें होने लगीं
तो रिश्ते नाते क्या करिए

Thursday, September 22, 2011

सब कुछ भुला कर चल दिए

इक साल बीता और हम
इक नए सफ़र की पुकार पर
फिर से नयी तलाश में
सब कुछ भुला कर चल दिए


कुछ यार छूटे गम हुआ
कुछ ख्वाब टूटे गम हुआ
इक बेतुके से दाव पर
सब कुछ लुटा कर चल दिए




बुन्तर की पुरानी तांत पर
शतरंज की शेह और मात पर
इक ख्वाब बुना इक जंग लड़ी
और गुन गुना कर चल दिए



इक कारवां जो मिल गया
ये सफ़र शुरू हुआ नया
जैकारों के उठते शोर पर
हाँथ उठा कर चल दिए

कभी बादलों में खो गए
कभी घाटियों में सो गए
लहरों की पृष्ठ भूमि पर
लिख कर मिटा कर चल दिए

A myth that lived forever

The greatest fear of the mankind has been the thought that their existence has no meaning and that they might be living a life just like any other form of life in front of them – meaningless and painful. Man, thus, created myths and myths proved to be powerful enough to be able to echo till eternity. He wanted to be fooled. That’s what we have watched in The Prestige. We knowingly choose not to watch too closely. Why could only few people come up with intricacies of nature and its laws? Because, the ability to question the well established beliefs has never been a privilege of the majority. As if by some law of nature, time and again circumstances around a person grow such that he becomes ardent in his perception about life and gets drawn towards free thinking rather than following the crowd. I do not intend to come up with any sort of criticism for those whom I group into ‘the majority’. I have just tried to figure out what we actually are and why do we act in a certain way.



There are many mountain ranges and there can be made many arduous paths through them each ending at a dead end. But man will never walk on any of those. As the journey will be painful and the climate will be extreme coupled with the fact that it will end in a dead end. The same man will easily find value in the journey if someone tells him that a God once kept His foot on the very same point where the path ends. We do not want to accept that the world is without a God and that there is no one watching us. We just want to believe that against all odds, there is surely a God and every single event in our tiny lives has a value in it. The idea of life full of pain and anguish, with a meaningless dead end can impress no one to go on walking and walking. We make relationships, we attach emotions to things we possess and we care. As time passes we amass enough around us, to realize that we need to take responsibility of it all. Then we turn to stories of past and bring out meaning in them, map them to our lives and move on. The way of life we human beings are living, is a classic case of fear getting converted to beliefs and beliefs getting converted to actions. No matter how much we study, no matter how many degrees we amass and no matter how many a times our belief shakes, we make ourselves believe that we are beyond time and that we are not the body but an unperceivable soul.



The picture that I see leaves me emotionless. Just like millions of ants crawling around, we human beings move in herds. We chant mantras, we perform rituals (some Indians hold pujas for Sachin expecting the Gods to come down and help him score his century). Against all odd, we want to believe that there is one merciful God, who cares about us and has such a great bandwidth that each one of us is under His supervision. I myself pray a lot whenever I am in pain. But now I have realized that praying helps because it helps you to clear your mind and when mind comes at rest the whole body becomes calm. Meditation helps and to meditate if we focus on some God, then again I see no wrong in it. Belief helps – agreed. The point is, we do not get out of it even once and try to see the grand meaninglessness. Let say, for once, we realize that we can be fools to be giving so much value to colorful rock pieces, jewelry and all the man made luxuries as we all are living the same lives as that of an ant and we all have the same fate in the end of this

journey – a dead end, wont we lose our all purpose of life, our reasoning, our ego, our bid to explain each and every single thing we see. ‘Don’t think too lowly about yourself, have some self confidence’, is the maximum a teacher can

throw at me on my arguments proving the pointlessness in the home assignments and examinations. But there again I see an ignorant human being, who is not equipped enough to answer his student, who fears the validity of the student’s convictions, who fears the randomness and chaos that can be unleashed once the ideas become accepted.



Myths echo till eternity. They are powerful enough to engulf the human race in them and make them act the way the

originator wanted them to act. Women have burnt themselves alive with the burning bodies of their husbands on this land only. Cows and buffalos have been sacrificed in front of stones believing that Gods will become happy. Dates have

become festivals and months have become holy. People are ready to blow themselves up in public, as they are (as per the perception of the masses) brainwashed . If a Islamic fanatic is made to believe that there is a heaven after death and a sacrifice in the name of Allah will make him immortal, then we term him as a terrorist and loath the ideas that are injected in him. I see no difference in the Hindu beliefs. The only thing is that Hindus have, in general, not so far indulged in such things (and that does not make them any different or any superior to loath any other set beliefs. After all we are cow herds, grassing in different pastures. What we eat may be different, but what we do is the same). The central idea of every religion is the same. The mass following a religion can be made to do anything. They are weak and full of fear. They fear the unknown Gods. They do not want to accept anything beyond the Holy books. Again, I will take a halt here and reiterate what I said earlier, that I do not loath beliefs. I do not intend to look down upon

the group of people, whom I refer to as the majority. I just want to make the reader of this article, wait for while. Stop arguing. Stop thinking. I want you to imagine a millions of ants crawling. I want you to see it.

Sunday, September 11, 2011

आगे बढ़कर देखेंगे

जब जीवन को ललकार दिया तो आगे बढ़कर देखेंगे
बरसों पले पर्वत के नीचे अब ऊपर चढ़कर देखेंगे

इतना न सोचो के देखा सोचा स्वप्न अधूरा रह जाए
कुछ करना है सो करना है जीवन व्यर्थ न पूरा रह जाए
हाँ! होंगे जरूर हमसे ज्यादा अनुभवी जीवन समझने वाले
होंगे मंजिल तक रस्ते चार,और उनपर भी कुछ चलने वाले
जब पाँचवा रास्ता ढूंढ लिया तो उसपर चलकर देखेंगे

निज जीवन से ज्यादा क्या देंगे हम इस महान आवर्तन को
इक विषय चलो हम पीछे छोडें अगले कवियों के दर्शन को
जो खून खौल रहा क्षत्रिय सा, और युद्ध भूमि ललकार रही
तो ऐसे में हमको कायर सा, क्रंदन और भय स्वीकार नहीं
व्यास कथन जो सत्य हुआ तो सब देव उतर कर देखेंगे

Wednesday, September 7, 2011

मैं क्या लिखूंगा




मुझे हमनफस अब शायर न कहिये
आँखों के प्यालों को मैं क्या लिखूंगा

घनी शाम जुल्फें घटा या के बादाल
लटों और बालों को मैं क्या लिखूंगा

क्यूँ करिए जमाने में रुसवा हमे अब
लबों और गालों को मैं क्या लिखूंगा

बहुत खुश है मिलकर 'चक्रेश' लेकिन
कदमों के छालों को मैं क्या लिखूंगा

Friday, September 2, 2011

बाबरी


वो मर मिटें मेरी मजार से उठे सवाल पर
फ़रियाद है के बक्ष दो मुझको मेरे हाल पर

इक चाह थी के चैन से चुप चाप मैं सो जाऊंगा
के रख दिया तकदीर ने थप्पड़ मेरे गाल पर

Wednesday, August 31, 2011

अपने ही वादों के, कर्ज़दार हो गए


अपने ही वादों के, कर्ज़दार हो गए

बैठे थें किनारों पे, मजधार हो गए



फसलों के संग आए, खानाबदोश परिंदे

भी

और हमारी मचानों के, दावेदार हो गए



हमने जला डालीं, लिखकर कई गज़लें

वो बेंच राखों को, फनकार हो गए




हम ढूँढते फिरते, खोयी हुई हस्ती

जो भूल गए खुद को, वो पार हो गए



इक दौर गुजरा है, हम थें अजीजों में

इक दौर ये आया, हम लाचार हो गए

Tuesday, August 9, 2011

Everyone is acting under the influence of same forces. Some accept the flow and go on without attaching any passion to the trajectory and the path of the stream. Some try to defy nature and thus themselves, at some levels, and try to carve separate tracks for themselves. There are few who don't realise that they are flowing

Sunday, August 7, 2011

वो लिख जो कहना न आसान हो

वो लिख जो कहना न आसान हो
जो साँसों के ही हो बस दरमियाँ

ऐ दिल जो परदे खिड़कियों से तेरी
ख़्वाबों के झोंकों से रहे हैं लिपट
उनसे छनती किरणों को लिख
तू वो लिख जो कहना न आसान हो

इन किस्सों कसीदों कहकशों में है क्या
ये न होंगे न होंगे इनके निशाँ
तू वो लिख जो कहना न आसान हो

मंजिलों तक पहुंचती रहगुज़र को भी सुन
सांस लेती समंदर की लहेरों को लिख
तू वो लिख जो कहना सा आसान हो

Sunday, July 24, 2011

मेरे माजी से जुडी डोरें

मेरे माजी से जुडी डोरें
मुझे अब वापस बुलातीं हैं....



ये हाल-ऐ-दिल अगर मेरी
यहाँ पर जान लेले तो
मेरे यारों रहम करना
मेरी तुम राख ले कर के
पुराने डाक खाने की
चौखट पर बिछा देना...
किसी कासिद के कदमों संग
किसी ख़त के बहाने मैं
कभी उस चार-दिवारी तक
पहुँच ही जाऊंगा..
जहाँ बैठा मेरा बचपन
फकत इस नाज़ पे दिल के
के गिनना सीख चूका है वो
अब भी अंधेरों में
तारे गिन रहा होगा
जब टूट के डालों से
गिरती होंगी पंखुड़ियां
वो दिल-ओ-दीवार की दस्तख पे
गिनना भूलता होगा
वो दिल-ओ-दीवार की दस्तख पे
नना भूलता होगा

Saturday, July 2, 2011

अपने ही वादों के, कर्ज़दार हो गए

अपने ही वादों के क़र्ज़दार हो गए
बैठे थे किनारों पे मझधार हो गए

हम ढूंढ रहे अबतक खोयी हुयी हस्ती
जो भूल गए खुद को वो पार हो गए

Tuesday, June 28, 2011

मेरी जान लेके देखो



मेरी जान लेके देखो, मेरा भूत कैसा होगा
मैं अभी से जानता हूँ, वो तुम्हारे जैसा होगा

वही खोखली निगाहें, वही भूख हर अदम सी
वही नामुराद चेहरा, कातिल के जैसा होगा

मेरी बाजुओं में कीलें, सूली पे दिन गिनूंगा
सजदे करेंगे ज़ालिम, इक दिन तो ऐसा होगा

Monday, June 27, 2011

वो न मिलें हम क्या करें

हमने पते पर ख़त लिखा,वो न मिलें हम क्या करें;
उनका नहीं है कुछ पता, ये मंजिलें हम क्या करें...

यहाँ कौन जाने अपने गम,कहने को सब अपने ही हैं;
इक वो नहीं जो दरमियाँ,ये महफिलें हम क्या करें...

वो सच ही कहते होंगे के, मौसम बहारों के हैं ये;
कई फूल बगिया में यहाँ, ये न खिलें हम क्या करें...

Saturday, June 25, 2011

कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं




कोई होता मुझसे कहने को
के कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं
अभी और भी मंजिलें बाकी हैं
ये कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं

हर शाम मैं ढलता सूरज सा
और रात विचरता चंदा संग
कोई साथ तो चलता चार कदम
और हंस कर कहता कुछ भी नहीं

इस पार ह्रदय दुःख पाकर भी
हंस लेता जी भर गा लेता
जो सुनता कोई हर कविता को
और अर्थ पूछता कुछ भी नहीं

मैं पूछ रहा हर चहरे से
चिंता कैसी किसका जीवन ?
एक मौन मिला बस उत्तर में
और कुछ भी नहीं कभी कुछ भी नहीं

इक उम्र पड़ी अभी जीने को
इक उम्र देख कर आया हूँ
बड़ी जोर-जोर से बातें की
और दे मैं सका अभी कुछ भी नहीं

कोलाहल चीत्कार शहर की
door धकेले है मुझको
भाग रहा मैं अपनी छाया से,
ढूंढ रहा मैं कुछ भी नहीं, हाँ कुछ भी नहीं

Tuesday, June 7, 2011

अखबार बेंच कर आया हूँ



अखबार बेंच कर आया हूँ
हथियार बेंच कर आया हूँ
आग उबलती खबरों का मैं
बाज़ार बेंच कर आया हूँ




किसने कैसे कितना खाया
किस मंत्री ने कितना पाया
अगले मुख्य चुनावों का मैं
दावेदार बेंच कर आया हूँ




फ़िल्मी जगत की ताज़ी बातें
IPL की जागी रातें
छोटे-बड़े पूंजीपतियों के
कारोबार बेंच कर आया हूँ




गली मुहल्लों के फर्जी कॉलेज
नन्हों को A+ की knowledge
अधनंगी तस्वीरों का मैं
भण्डार बेंच कर आया हूँ




चालीस पन्नों की चालीसा
स्थान सत्य का छोड़ा खाली सा
Real estates, car-agency, flights के
प्रचार बेंच कर आया हूँ

Friday, June 3, 2011

देखेंगे बहारें जाने दो, कब तक रुकते हैं दीवाने



देखेंगे बहारें जाने दो, कब तक रुकते हैं दीवाने............
कुछ देर यहाँ पर महफ़िल है, फिर तो होने हैं वीराने

हैं शोख नज़र के चर्चे आम, गज़लें सारी हैं साकी पर
साकी ही शायर की पूजा, जब तक खुलते हैं मैखाने

कुछ नाम जो होता तो शायद, बगिया-ऐ-मुहब्बत तक जातें
जिन गुंचा-ओ-फिजा में हीर बसे, वहाँ कौन हमे अब पहचाने?

हमसे है शिकायत यारों को, मिलना-जुलना सब बंद हुआ
कुछ वक़्त ही ऐसा है शायद, कैसा है क्यूँ है रब जाने ....


क्या नहीं खबर हमे ऐ लोगों, जो रात मचाया हंगामा
इक बूँद न पी थी ये कहने को, आये हो हमको समझाने...

Monday, May 23, 2011

वो मैं था

वो मैं था
वो मैं था
जो कहता था उस दिन
के सब कुछ यहाँ का
यहीं पर रहेगा
जो सुनते हो तुम ये
आज मेरी जुबानी
ये कविता कोई और
कल फिर कहेगा

Saturday, May 21, 2011

Without any title



The hardest part in writing this blog post was to decide the topic of it. Having realized that it does not matters, I decided to keep it without any title. There has been a lot of upheaval in my head for about past fifteen years. I could sense one thing very early in my life, and that was: I am all that matters to me. I could see a grand meaninglessness in everything and anything around me. Now, when I have completed my graduation and I am having job, some new dimensions of understanding have come up from within.
Being a good observer of nature and surrounding, I could observe few things more closely and by the grace of God (who in my case is not a Hindu or a Muslim), I could write down some poems which I cherish as my children. There had been questions though, which were disturbing. The questions were mainly about what I was doing and why. Logic is what we run after all the time. The chase can be painful but the fulfillment of it is equally pleasant and rewarding. I ended up with Knowledge-Energy theory in my final year at college. The theory summarizes that there is one indestructible-knowledge and it is self existing. This knowledge personifies itself through energy. Energy has always some knowledge element associated with it. Energy brings about the existence of matter and the rest is well known Physics. But I left this theory with a conclusion that every perceivable or non-perceivable existing element of nature has its roots in some indestructible, uniformly constant, unchanging knowledge. I was happy to have realized there was after all some logic in my being here until recently when Stephen Hawkins came out with a conclusion that it’s all by chance. I was devastated to know something I always used to say, but deep down under believed that I might be wrong.
The idea that we are here by chance and it means nothing, is a dreadful thought. It implies that what you value and what you run after has no meaning because you yourself have no meaning. You are just on outcome of several random events which could have infinite many combinations of outcome. You are nothing but a walking piece of lump. The idea that there is no God and no one governing your being here, leaves you with three options. One, live for the rest of your life doing what your whim says. Two: free yourself from the man made pain that chokes your throat every now and then. Commit suicide as it does not makes any difference anywhere, even if you feel it does some where it’s actually your ignorance that makes you feel that way (a detailed discussion is out of the scope of the present topic, even though it’s without one). Three, create a God and live for Him. This is what the society has done.
Man realized, what Mr. Hawkins has realized in the 21st century, even when he was living in caves. Man knew that, the day logic behind his being will be removed, he would be left with no motivation of running after antelopes and dear in thorny jungles with bows and arrows to fulfill his hunger. The pain which man under goes while he spends his life on earth will in no way remain bearable without the concept of a God who is watching him and loves him.
Having read a lot of Physics during our pursuit of happiness, we read about various forces of nature that govern the motion of the heavenly bodies, sub atomic particles and also the day to day movements of vehicles etc. We learnt how some forces are conservative and some are not. We learnt so much and then forgot. My intension here is not making you revise all that you have already learnt. I want to put up a question here. If I am a part of nature then, what forces act on me? I will refine my question a little and add what “natural” forces act on me? A question might come up now, are there some forces which are “not natural”? Well, I do not think so. So, back to my first question which was as good as the refined one. I can think of few forces like Love, Hatred, Jealousy, Ego.
All that we do, all that we yearn for, all that we value are governed by the magnitude and direction of these forces. At some point in time all the forces must have added up to some magnitude and direction in me, which was such that I was forced to go for a particular competitive examination. I could undergo a hard daily routine and could concentrate all my energies in one direction for so long because the forces where aligned in one direction for a long time and thus I followed a particular path. At the very same time there were other boys and girls also who were under the influence of very similar forces from within and thus they too reached the same places where I did. So far, so good. With all these understandings, I can find logic in my being where I am. I am under the influence of natural forces (equally good will be to say just forces). Just like the earth goes round the Sun under the influence of Gravitational force, I am going after things and people and passion and poetry under the influence of forces that are acting upon me from within me.
The question is, are these forces self existing? If not is there a God somewhere, deciding the general nature of these forces. If yes, what is His motive? He has created a world out of His imagination and is continuing to make sure that His world goes on and on with people coming and going, questioning and believing, fighting and praying? What is forcing Him to make it all happen?
Let me go now, under the umbrella of Mathematics now, after spending some time with Physics. It is well known that we invented numbers and thus the number theory. We started with a basic knowledge of counting, and extended it with summation, multiplication, subtraction and division. We then saw that there were some numbers which were even and some odd. We realized that there were some numbers which were prime. Fermat gave a theorem without proof, and it remained so for two to three century until in 1991 Andrew Willis came up with a beautiful proof. Fermat’s Last Theorem, as it is well known, is very simple at first sight. But the proof to it involves elliptic curves and modular equations. The point is, how something who’s roots were so simple as numbers, can itself grow up to a boundary less space and go on and on all by itself. Mathematicians keep coming and going and it never ends. What is the driving force behind the growth of a subject?
If I go by my knowledge-energy theory, then the knowledge in the case of Mathematics was of that of numbers. Once it was introduced it started spreading like a plant. It kept growing and is still growing. The entropy grows.
My argument is, since man and his deeds are governed by the laws o nature, even when we think that few things are man-made, we are basically myopic. Since, man is a part of nature, all that he dreams and conceives is natural. All that we invent is natural. Nature personifies itself through us. Rock could have never made an aeroplane fly or an engine run. Nature needed man to do that for it. Brick for instance is man made, but it’s made of clay and it’s made because man thought that he could use it to make houses. The inception of a thought in man’s mind is natural and governed by natural forces. There is nothing like not natural.
The question which is unanswered till now is the motivation behind the urge of knowledge to personify itself again and again in different forms through differ objects.
An electron in the first orbit of an atom of Carbon has same knowledge as that of any other electron in the first orbit of any other atom of Carbon. We have to read many books and spend time to understand the subatomic Physics but the infinite number of electrons which are orbiting around infinite nucleuses of many elements, behave in the exact same manner and they can be assumed to be having the same universal knowledge embedded in them which they realize through the forces they experience. The same has to be true for living beings and us Human. The forces that govern our thinking and behavior need to be studied a little closely. We are the prism through which the light of knowledge passes it our nature that decides to what extent we are capable of defragmenting the rays of knowledge and show the world few colors of it, which were till then unknown and unseen.
After having fixated my understanding on such conviction, I feel no need to be assured whether there is some God or not. In know there is knowledge and I am submersed in it. I know that I have the potential to act as a prism and show the world different colors of nature (poetry being one of them so far). Meaning of life is in living it. Destroying it, won’t serve your purpose of freeing yourself, as there’s so escape from here. You will remain submersed in the same ocean of knowledge even after death, just that the forces will change. Be where you are and feel the lightness of being in the laps of nature. There is nothing like man-made and that which is disturbing you, is your ignorance- fight it. I attach utmost value to the universal knowledge and call it God. I am a believer in God and I believe that there’s nothing by chance. There are forces which act at the will of the knowledge associated with them. I was born because numerous forces perceived me years before I came to existence. I was needed by nature to personify it in a few more dimensions. The day nature will realize that it is done with its full personification and there remains to scope of addition to its dimensions, it will seize to grow. No creation of nature is without a purpose. Stephen Hawkins was perceived by nature so that the human race could know a little more about the Universe. Albert Einstein was brought to life, so that we could know E=mc^2.Your existence has a meaning search for it within. Find your love for a thing in life, and life for it. God is in you and heaven is in front of you. Pain is nothing to be afraid of, while trying to bring about colors from life, you will need to undergo changes which you will resist naturally. Believe in the idea grand project of nature of personifying itself and find yourself a place in this process.

Wednesday, May 18, 2011

होता है जो अच्छे के लिए होता होगा


होता है जो अच्छे के लिए होता होगा

तो क्या हुआ जो कोई कहीं रोता होगा



दिन के उजालों में हों टूटते जिसके सपने

ख्व़ाब चाँदनी-तले वो सारे संजोता होगा



वो जो बच्चों से दिल का मालिक है

कस्तियाँ कागजों की अब भी डुबोता होगा



भूल जाना कहाँ सीख पाया 'चक्रेश'

पुराने खारों से रूह अब भी चुभोता होगा

Sunday, May 15, 2011

मोमिन न मैं फ़िराक न ग़ालिब न मीर हूँ

मोमिन न मैं फ़िराक न ग़ालिब न मीर हूँ
इक आग का गोला हूँ मैं अर्जुन का तीर हूँ

जुज़ नाम बिना काम मैं फिरता हूँ शहर में
बस्ती में बड़ा नाम है दिल का अमीर हूँ

इक लफ्ज़ नहीं बोलता वाइज़ की बात पर
गीता हूँ मैं कुरान हूँ इक जलता शरीर हूँ

Monday, May 2, 2011

तेरा नाम लिख कर मिटाते मिटाते

तेरा नाम लिख कर मिटाते मिटाते
तेरे हर इक ख़त को जलाते जलाते
यूँ लगता है खुद को भुला हम हैं बैठे
तुझे जेहन-ओ-दिल से भुलाते भुलाते

Sunday, May 1, 2011

कभी कभी मेरे दिल में ये ख़याल आता है

कभी कभी मेरे दिल में ये ख़याल आता है
के इस एक उम्र के तमाम लम्हे ख़ुशी के हो भी सकते थें
पर ये हो न सका
जिंदगी हर एक राह हर एक मंजिल एक नया सफहा खोलती गयी अलिफ़ लैला की दास्तानों सी
और हर एक हर्फ़ एक नए सफ़र के इशारे लेकर
आता रहा ..... जाता रहा
कभी कभी मेरे दिल में ये ख़याल आता है

Friday, April 29, 2011

मेरी कविताओं


कभी समय के साथ जो चलकर

भूल गया मैं मुस्काना

मेरी कविताओं फिर तुम भी

धू-धू कर के जल जाना



बहुत देर से चलता आया

बिन सिसकी बिन आहों के

आज अगर मैं फूट के रो दूं

तुम बिलकुल ना घबराना



मैं तो इक चन्दन की लकड़ी

यज्ञ-हवन में जलता हूँ

तुम हर मंत्र के अंतिम स्वाहा पर

बन आहूति जल जाना



द्वेष ना करना पढने वालों से

जो तुम्हे मामूली कहते हैं

बन जीवन का अंतर्नाद तुम

रोम रोम में बस जाना



भूत की खिड़की बंद कर चूका

मैं वर्त्तमान में लिखता हूँ

तुम भविष्य की निधि हो मेरी

आगे चल कर बढ़ जाना



ह्रदय कोशिकाओं में मेरी

शब्द घुल रहें बरसों से

लहू लाल से श्वेत हो चूका

तुमको अब क्या समझाना



अर्थ ढूढने जो मैं निकलूँ

मार्ग सभी थम जाते हैं

दूर दूर तक घास-फूंस है

मृग-तृष्णाओं पे पीछे क्या जाना



नदी के कल कल निर्मल जल सी

बहती रहो रुक जाना ना

झूठ सच यहीं पे रख दो

सागर में जाके मिल जाना

Monday, April 25, 2011

फलसफा

किस गली किस शहर की ख्वाहिश में हम
बिक गए, लुट गए, खो गए क्या पता
क्या था जो रहा रूह के इतना करीब
के खुद से पराये हो गए क्या पता

चल रहे हैं के चलते रहे हैं कदम
रुक के देखा नहीं है हमने कभी
ख्वाब हो या हकीकत एक ही फलसफा
जागते थें हम कब सो गए क्या पता

Tuesday, April 12, 2011

सुगंध - ३

मैं कब जन्मी थी जीने को,

कब मौत हुई मेरी सोचूँ

मैं तो युग युग से इसी सृष्टि की

एक निरंतर कविता हूँ

कर्म धर्म सुख दुःख की गाथा

बैठ पथिक सुनाता है

मेरी रूचि कब थी इन बातों में

इश्वर के धुन क्यूँ गाता है

जो फूल खिल गया बिन बातों से

उसकी सुगंध की प्यासी मैं

स्वयं पंक्ति जुड़ जाती मुझमें

उसके खिलने की जब सोचूँ

होंठ बंद कर पढ़ लो मुझको

हंस लेना जब उर तक पहुंचूं

यहाँ उतरते शब्दों से मैं

वहां फैलाते मद तक सोचूँ

Friday, April 8, 2011

सुगंध २


पात पात
पुष्प पुष्प
इक सुगंध उठ रही
शब्द शब्द

सांस सांस
आह है बस वही
स्याह मध्य रात्री
रूप पृष्ठ पर उतर
काव्य काव्य
बन चला
अंश वंश कुछ नहीं

मूक मूक मैं इधर
दहक दहक वो उधर
मचल मचल जल रही
महक महक कह रही

वेद ग्रन्थ
सार सब
धर्म काण्ड
व्यापार सब
झूठ सच खुल रहे
बातचीत कुछ नहीं

Thursday, April 7, 2011

थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

क्यूँ रूठ गए मेरे यार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो
कुछ बातें हैं दो-चार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

भोला सा भोला भाला सा
नन्हा सा वो मतवाला सा
खोया बचपन का प्यार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

देखो तो शायद मिल जाए
अंतर में झांको मुस्काये
हाँ वही वो राज कुमार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

behane को नदियाँ बहती हैं
सब अपनी अपनी कहती हैं
सुन सको तो सुन लो यार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

सागर की उमंगें बन जाओ
हंस सको न सको पर मुस्काओ
जीवन बच्चों का व्योपार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

उठा कलम कविता लिख दो
खोल ह्रदय आखर सरिता लिख दो
मृगनयनी से कर लो आँखें चार
थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो


बोतल की बूंदों को मतलब को

प्यालों को सब का सब दे दो

दुःख का मत लो भार

थोड़ा धैर धरो कुछ देर सुनो

Monday, March 28, 2011

सुगंध


प्रथम अनुभूति

-सुगंध-

पथ भ्रांत पथिक पूछ बैठा मुझसे
फिर वही पुराना हास्यास्पद इक सवाल
अपनी हंसी दबाये, उसकी भावना को ध्यान में रख
गंभीर मुद्रा बना एक सोच में डूब गया मैं
और फिर कह दिया कि,
"मुझे नहीं पता"
इन कहाँ से आया, कहाँ चला के प्रश्नों को
एक पोटली में रख कर
मैं बहता आया हूँ जीवन - मरण, जड़- चेतन,भूत भविष्य के इस अविराम बहती रहने वाली गंगा में
ये मान लिया है के कहीं आगे कोई विशाल सागर होगा
जहाँ पोटली लहरों के ठन्डे थपेड़ों से टूट जायेगी
और समय के साथ राख बन चुके सब सवाल
धीरे धीरे ऊपर कि उथल पुथल से कहीं नीचे जाकर
कहाँ से आया, क्यूँ आया, कहाँ चला के हास्यास्पद सवालों पर आंसू बरसाते
समां जायेंगे ज्ञान के अथाह सागर में ....
प्रकृति के रहस्यमय सूत्र सभी
एक एक कर के खुलते जायेगे
सभी सवाल अश्रू संग घुलते जायेंगे
घुलते जायेंगे
घुलते जायेंगे
और फ़ैल जायेगी एक लम्बे चक्र के महान समापन पर
एक दिव्य भीनी सी सुगंध



ckh

Friday, March 25, 2011

रात की चादर ओढ़ खड़ी राहें


रात की चादर ओढ़ खड़ी राहें
सुस्ताती देखता हूँ
वही चार-छे छोटे-बड़े पेड़ सभी
फूल-पाती देखता हूँ

शेष नहीं अब कुछ,
शून्य हुआ सब कुछ,
शब्द सब मौन धरे हैं
उजियाला फूट रहा,
अन्धकार टूट रहा
नैन अश्रू से भरे हैं
कौन जान पाया भेद, जीवन लहर का
आती जाती देखता हूँ

मीत कई प्रेम नहीं,
भीड़ में भटकता,
चहरे मैं पढ़ रहा हूँ
स्वेत पद्मासिनी आशीष देवें
कविता मैं गढ़ रहा हूँ
क्या जानो अर्थ मैं, पत्थर की मूरत
मुस्काती देखता हूँ

Wednesday, March 23, 2011

चलो हार जाएँ सवालों से अब हम


चलो हार जाएँ सवालों से अब हम

के लड़ने से इनके हौसले बढ हैं



जो अपने नहीं थें उनके हुए हम

जो अपने थें उनसे फासले बढ़ हैं



चलो झूठ का इक चोला पहन लें

सच टूटने के सिलसिले बढ़ रहे हैं



कहीं रह ना जाएँ अकेले सफ़र में

यहाँ हर नज़र काफिले बढ़ रहे हैं



.....what it takes to convert a thought to poem is still not known to me...all I know by now, is that there's something in the way you hold your pen....

Saturday, March 19, 2011

अपने ही आज दिल में खंजर उतारते हैं

अपने ही आज दिल में खंजर उतारते हैं

बिखरा पड़ा वतन है सब घर सँवारते हैं



रखूँ क्यूँ मुह पे परदे झुका के सर मैं चलूँ क्यूँ

यहाँ लोग संसदों में कुरसी से मारते हैं



किया कुछ तो होगा मैंने सजा कौन देगा लेकिन ,

इतिहास कुल वधू के कपड़े उतारते हैं ..



लो मर गया परिंदा फडफडाता हुआ परों को ,

भूखे खड़े दरिन्दे छूल्हे निहारते हैं

Tuesday, March 15, 2011

ye mulk lut raha hai hum ghar savarate hain ,

ye mulk lut raha hai hum ghar savarate hain ,
apne hi aaj dil mein khanjar utaarate hain;


rakho kyun muh pe parde jhuka ke sir main chaloon kyun,
yahan log sansadon mein kursi se maarate hain ;

kiya kuch to hoga maine saza kaun dega lekin,
itihaas kul vadhoo ke kapade utaarate hain ;

lo mar gaya parinda phadphadaata huwa paron ko
bhookhe khade darinde choolhe nihaarate hain ;


15th March'2011

Sunday, March 6, 2011

कोई काव्य अधूरा रह जाए, ये बात मुझे मंजूर नहीं

कोई काव्य अधूरा रह जाए, ये बात मुझे मंजूर नहीं
इस शोर में मूक मैं हो जाऊं, ऐसा भी तो मजबूर नहीं

कितनी ही बूँदें देखो तो, रेतों में फँसी हैं साहिल की
सब सत्य से अपने वंचित हैं, सागर जबके है दूर नहीं

मेरे रोम रोम झंकृत है, इक संगीत विधाता की रचना
ये कलम आत्मा की वीणा, कोई साज़ कोई संतूर नहीं

Monday, February 28, 2011

antim satya

Ganga-ghat Manikanika par

kab lapate dam leti hain

ek bhuji to raakh bani fir

duji dhoo dhoo karti hain



antim satya yahi jeevan ka

sab raakh raakh ho jaayega

kya lekar tu aaya tha aur

kya lekar tu jaayega ?



rishate naate tere banaye

tune sajaaya ghar sansaar

kinkartavya vimood hua kyun

bhool gaya kya Geeta saar ?



aisa kya tha daav pe tere

jo paason se haar gaya

chausar teri daav bhi tera

kaun tujhe fir maar gaya??



jis din raahi dekh sakega

antar mein sab paa lega

ashroo nahi honge aankhon mein

hans lega tu gaa lega



chalata ja ke chalana jeevan

jeevan ka tu hissa hai

ek adhoori kavita ka tu

chota sa ik kissa hai



jod tod ginati gadna mein

samay vyarth na kar raahi

chalata ja tu aage aage

ginata hai sab eeswar raahi

Saturday, February 26, 2011

मेरी परछाइयाँ

मेरी परछाइयाँ
मेरी आवाजें
मेरा वजूद
मेरे किस्से
मेरी बातें
बताओ कब तक मेरे होकर रह पाओगे
बताओ कब तक प्यार मुझे कर पाओगे
मेरे गम
मेरे दर्द
मेरी सोच
मेरी समझ
मेरी रातें
बताओ कब तक साथ मेरे चल पाओगे
बताओ कब किस मोड़ पर मुद जाओगे
हंसू कैसे
कहूं अब क्या
कोई कविता
कोई किस्सा
नहीं हैं कोई गज़लें
बताओ तुम ये खामोशी क्या कभी सुन पाओगे
बिना मेरे कहे कुछ भी क्या तुम समझ सब जाओगे

कभी यूँही किसी मोड़ पर

कभी यूँही किसी मोड़ पर
रुक कर हंस देना फ़कीर
जिंदगी इतनी भी गम जदा तो नहीं
कम नसीबी है लाचारी है
नाउम्मीदी नाकामी है मगर
हार कर रो देना जीने की कोई हसीं अदा तो नहीं

Sunday, February 20, 2011

एक चोट

फिर एक शून्य रख गया, जाता पल मेरी हथेली पर

एक सवाल

एक अनुभव

एक व्योम ...

नसों से रिस रिस कर कुछ खून

जमता गया समझ ki सफ़ेद परत पर

और धीरे धीरे

ह्रदय के कोने पथरीले होना शुरू हो गए ........

फिर एक शून्य रख गया,

जाता पल मेरी हथेली पर

एक सोच

एक मौन

एक चोट

जैसे खींच लिया हो झटके से किसीने

कोई बाल त्वचा का

एक tees के बाद सम्भलते रोम में

रह गयी है वेदना ki तरंग कोई

Thursday, February 17, 2011

मेरी रुसवाई होने वाली है

मेरी रुसवाई होने वाली है
हर नज़र हुई सवाली है

हो न हो आज ही मरूंगा मैं
ये सिआह रात बड़ी काली है

सब राज़-ओ-परिंदे उड़ गए देखो
पिंजरा-ऐ-दिल अब तो खाली है

वो फिर भी तुहमत लगाता ही गया
मेरा यार अब भी सवाली है

चली है इश्क पर कलम जब भी
'चक्रेस' मुलजिम हुआ बवाली है

Wednesday, February 16, 2011

जमा मस्जिद

जमा मस्जिद के सामने देखा एक
बूड़े बाबा को ठेले पर बेकरी बिस्किट बनाते हुए
कैसे चुप चाप भीड़ से अनजान बने
उम्र के सभी पड़ाव और उनतक साथ चले अनुभवों को
अपने चहरे की सिलवटों में समेटे
मैदे सूजी घी और चीने से बने चूरे को
अंगीठी में तपा मीठे स्वाद से भरे बिस्किट बनाते हैं ...
रोज़ मर्रा की वही खबरें,
दो - चार आने पर आग उबलते चाँदनी chauk के बाज़ार
और नव जवाने के वही बिगड़े तेवर, आग उबलते सवाल
कैसे इन सब में रह कर
इन सब से दूर यहाँ खुदा के दर पर ही
पा लिए है इन बूड़े बाबा ने
ज़िन्दगी जीने का एक हसीं मकसद
उल्गलिया अंगीठी की राख से भले ही काली हो जाती हैं
मगर हर एक बिस्किट सोने के सिक्कों सा चमकदार बन निकलता है
समय के साथ हिन्दू मुसल्ल्मानों में दरार दे गए सियासत वाले
और उन्छुवा नहीं हूँ मैं shaayad
शायद इस लिए एक बार मस्जिद तक जाती ऊंची सीढ़ियों
से दर gaya tha मैं
पर जाने इन बाबा की आँखों में तैरते जीवन के सभी मंजरों में कहाँ
खुद को देख लिया मैंने...
प्यार से रचे एक एक बिस्किट कह गए मुझसे
खुदा के सभी तलिस्माई किस्से
और मिटा गए ह्रदय की सतेह से सभी निरर्थक रेखाएं

Wednesday, February 9, 2011

My vision for my nation and its people

I can think of 10 points as of 9th Feb'2011. I know that the points are not new to us, but I feel we are a generation a lot different than that of our forefathers. I have a dying hope to see India as it was (and is) meant to be.

10 point:

1. Agricultural reforms (improvement in farmers' standard of living)

2. Educational reform (let no Indian student look west for higher education)

3. Energy Self Sufficiency (use of wind energy and minimization of power theft)

4. Ecological balance and environment awareness in general public.

5. Internal security (one sixth of India lives in regions having constant conflicts)

6. Women equality

7. Reservation to be on the basis of financial constraints rather than on caste/creed.

8. Politics to be made a desirable profession for those who deserve.

9. Revival of ancient art and culture to save the cultural heritage

10. Reforms in judiciary to make it faster and more efficient.



(above all an understanding of Kartavya in every soul)



Let not just negativity set in every young mind of my mother land. May not every one turn their face to avoid the rotting smell of almost system in our present day India. I believe and I find it a reason worth living for.

.

P.S.: This is the first article which covers my vision in few consise points. I am busy working out the plan on which I can move on and bring my vision to reality.

Monday, February 7, 2011

ऐ मेरे दर्द-ऐ सुखन

ऐ मेरे दर्द-ऐ सुखन
तू न बे-बेहर न बेवज़न
एक ही तू है तमाम दुनिया में
जो जानता मेरी साँसों की बेहर
औ मेरे अश्कों का वज़न
ऐ मेरे दर्द-ऐ-सुखन

Thursday, February 3, 2011

कई बार समझ की सीमा पर

कई बार समझ की सीमा पर
अवाक खड़ा रह जाता हूँ
देख क्षितिज तक फैले तम को
अघात खड़ा रह जाता हूँ

पीछे की तू तू मैं मैं से आगे
छोड़ वर्त्तमान के कोमल धागे
इधर उधर जो मन भागे
हाथ पकड़ बिठाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

मन उपवन में फूल फूल
लिपटें संग इनके शूल शूल
बाहर देखूं तो बस धूल धूल 
अंतरमन की नीरसता को
ताक खड़ा रह जाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

व्योम धरा का विस्तार कहीं
निःसार सगर संसार कहीं
इस भव सागर के पार कहीं
जाना है चलता जाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

विधि के पहिये खटर-पटर
कर चिंताओं को तितर-बितर
कुछ कहते हैं अंतर में उतर-उतर
हर कविता में खुद को मैं फिर भी,
ठगा हुआ सा पाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

-ckh

Sunday, January 30, 2011

ढाई सौ ग्राम सपने

ढाई सौ ग्राम सपने

आधा दर्जन सवालों के साथ

दीवार पर गड़ी खूँटी से लटका गया था कल

आज जा कर देखा तो

मीठे सपनों में चींटियाँ लगी हुई थीं

और सवालों में घुन |

Thursday, January 20, 2011

बड़ी देर से हम लिए हाथ में दिल, जिन्हें ढूँढते थे वो आयें तो ऐसे

बड़ी देर से हम लिए हाथ में दिल, जिन्हें ढूँढते थे वो आयें तो ऐसे

शरमसार होकर निगाहें चुरा लीं, उन्हें हाल-ऐ-दिल अब सुनायें तो कैसे



दुपट्टे के कोने में उनगली लपेटे, गज़रे की खुशबू से भर दीं फिजायें

इज़हार-ऐ-मुहब्बत निगाहों में लेकिन, लरज़ते लबों को शिकायत हो जैसे



नहीं होता दिल पर काबू किसी का, दबे पाँव आकर घर कर गए वो

कोई और चेहरा अब जी को न भाये, कहीं और दिल को लगायें तो कैसे

Wednesday, January 12, 2011

तो सोचा जाए उनसे मिलने की

जख्म भरे तो सोचा जाए उनसे मिलने की
सांस थमे तो सोचा जाए उनसे मिलने की

धागे सारे रिश्तों के मैं उलझा बैठा हूँ
गाँठ खुले तो सोचा जाए उनसे मिलने की

जीवन रुका पड़ा है कबसे उन्ही सवालों पर
बात बढ़े तो सोचा जाए उनसे मिलने की

अब पालनें बाँझन आंखों के सूने रहते हैं
ख्वाब पले तो सोचा जाए उनसे मिलने की

बगिया सूनी है बिन माली फूल नहीं कोई
कँवल खिले तो सोचा जाए उनसे मिलने की

Friday, January 7, 2011

अब गिरनी है तब गिरनी है

टप टप करके गिरती बूदें
चिटक चिटक झड़ती दीवारें
धूल धूल हुआ हर पर्दा
खोखली पड़ गयीं मीनारें

गाँव की वो मज़ार पुरानी
सदियों से जानी पहचानी
अब गिरनी है तब गिरनी है
दीवारें हैं सब ढेह जानी

हरी काई स्याह हो गयी
गुम्बज़ की वो चमक धो गयी
चौखट पड़ी रह गयी अकेली
मेलों का वो बोझ सह गयी



अब गिरनी है तब गिरनी है
यादें भी हैं सब खो जानी

Wednesday, January 5, 2011

अपराध बोध

भिखारन रात मांगती रही मेरी आँखों से
एक नए स्वप्न की भीख
मैं अकिंचन पलक बंद कर
दे गया फिर वही दो बूँद अश्रू के

रात चौखट पर भूखी बैठी रही बिलखती
फिर चौकीदार सवेरा लात मार
खदेड़ आया बिचारी को
कहीं किसी और गली में जा भटकने की खातिर...

अपराध बोध रह गया इक मन में
हाथ में लिए निवाला सच का
सोच रहा हूँ कैसे निगलूँ ?

झूट मूठ का कोई सपना
माटी के पुतले सा भी होता
टूट जाए तो भी क्या गम है....

सच,
.....कितना भारी होता है ऐसे
हर रोज़ रात अभागन को
भूखे पेट सुला देना ..........

Tuesday, January 4, 2011

एक शून्य

फिर एक शून्य रख गया, जाता पल मेरी हथेली पर

एक सवाल

एक अनुभव

एक व्योम ...

नसों से रिस रिस कर कुछ खून

जमता गया समझ ki सफ़ेद परत पर

और धीरे धीरे

ह्रदय के कोने पथरीले होना शुरू हो गए ........

फिर एक शून्य रख गया,

जाता पल मेरी हथेली पर

एक सोच

एक मौन

एक चोट

जैसे खींच लिया हो झटके से किसीने

कोई बाल त्वचा का

एक तीस के बाद सम्भलते रोम में

रह गयी है वेदना ki तरंग कोई

Sunday, January 2, 2011

जाने क्या-क्या भुला के बैठें हैं

जाने क्या-क्या भुला के बैठें हैं
घर ख़्वाबों का जला के बैठे हैं

कोई रोता है क्यूँ घर के लुटने पर
लोग यहाँ जिंदगी लुटा के बैठे हैं

रह न जाए इक भी ख्वाब जिन्दा
रात को जेहर पिला के बैठे हैं

खींच ले दिन तू चाँदनी की रिदा
दर्द की गर्म रजाई भरा के बैठे हैं


हौसला है चीखे बिना मर जाने का
अपने मुह को हम दबा के बैठे हैं

सुहाने पल की ढेरों यादें

सुना था जिन दीवारों से चिपककर चलती हैं कुछ पुरानी यादें
और मिलता है जहाँ से मिर्जा असद उल्लाह खाँ 'ग़ालिब' का पता ..
मैं आज उन्ही चूड़ी वालन की गलियों से होकर आया हूँ
लाल किला जामा मस्जिद पुरानी दिल्ली के दिल से चुरा लाया हूँ
पुरे जीवन काल के लिए एक सुहाने पल की ढेरों यादें ....

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...